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________________ प्रस्ताव ७ : अनन्त भव-भ्रमण २६६ का अब उचित समय आ गया है । अतः हे नरोत्तम ! आप महाराजा से पूछे, यदि उनकी प्राज्ञा हो तो अब मैं संसारी जीव के पास जाऊँ। [६०६-६०८] * सद्बोध-भाई ! तूने बहुत ठीक कहा । तुमने योग्य अवसर को बराबर ढूढा है । पश्चात् सद्बोध मंत्री ने फिर चारित्र धर्म महाराज से पूछा। महाराज ने मंत्री के कथन को स्वीकार किया और सेनापति सम्यग्दर्शन को मेरे पास भेजने की आज्ञा प्रदान की। [६०६-६१०] ___ मेरे पास आने से पहले सम्यग्दर्शन ने मंत्री से पूछा-हे देव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो इस पापरहित निर्दोष पुत्री विद्या को भी अपने साथ ले जाकर उसे भेंट स्वरूप प्रदान करूं । इससे संसारी जीव को भी संतोष होगा। सद्बोध-सेनापति ! अभी विद्या को ले जाने का समय नहीं आया है। क्यों ? इसका कारण भी सुनो । यह संसारी जीव अभी बहुत कच्चा है। अभी वह तुझे अच्छी तरह पहचान नहीं सकेगा अभी तो वह तुझे सामान्य रूप से ही स्वीकार करेगा । जब तक वह तेरे तात्त्विक स्वरूप को न समझे और समझ कर उसे भलीभांति धारण न करे तब तक विद्या कन्या उसे नहीं दी जा सकती। अभी हम उसके कुल और शील को नहीं जानते । अभी हमारा उससे गाढ़ परिचय भी नहीं है । यदि वह विद्या का पराभव/तिरस्कार करे, उसके साथ अच्छे सम्बन्ध न रखे तो मेरे जैसे को बहुत दुःख होगा। अतः अभी विद्या को बिना लिये ही तुम उसके पास जाओ। योग्य समय पर वह तेरा स्वरूप अच्छी तरह से समझेगा । जब तेरा वास्तविक स्वरूप उसके ध्यान में आ जायगा तब मैं विद्या को लेकर वहाँ आऊंगा । अभी संसारी जीव को सदागम का आश्रय प्राप्त हुआ है और उसके मोहादि भावशत्रु निर्बल हुए हैं तथा उसके सुख के स्वाद को चखा है। यह महाराज चारित्रधर्मराज के प्रति उन्मुख भाव वाला हुआ है और उसके मानस में महाराज के दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई है। अभी तुम विद्या कन्या के बिना जानोगे तब भी बहुत लाभ प्राप्त होगा, अतः अभी तुम अकेले ही जाओ । [६११-६१६] . सम्यग्दर्शन -- जैसी महाराज की आज्ञा और आपका परामर्श । इस प्रकार महाराजा के आदेश से और मंत्री के परामर्श से सेनापति अकेला ही मेरे पास पाने के लिए निकल पड़ा। समय पर विद्या को अपने साथ लेकर आने के लिए उसने मंत्री को संकेत कर दिया। [६२०] * पृष्ठ ६७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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