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________________ प्रस्तावना ६३ कार्य महामनीषी विद्वद्ररत्न महोपाध्याय विनयसागर जी को दिया गया। विनयसागरजी ने बहुत ही तन्मयता के साथ इस ग्रन्थ का सम्पादन और संशोधन एवं प्रथम प्रस्ताव का पूर्ण अनुवाद किया। अनुवाद का कार्य लालचन्द जो पहले कर चके थे, L इसलिये आमूल-चूल परिवर्तन करना सम्भव नहीं था, इस कारण कहीं-कहीं पर मूल ग्रन्थ के भाव स्पष्ट नहीं हो पाए हैं । तथापि साधिकार यह कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ अपनी शानी का अद्भत ग्रन्थ है। विनयसागर जी की प्रतिभा से ग्रन्थ के सम्पादन में चार-चांद लग गये हैं। ग्रन्थ की भाषा सरल है, सुगम है और मुद्रण आकर्षक है । अनुवादक, सम्पादक और प्रकाशक सभी साधुवाद के पात्र हैं । इस ग्रन्थ रत्न को इस रूप में प्रकाशित करने का श्रय श्रीयुत देवेन्द्रराजजी मेहता को है। देवेन्द्रराजजी मेहता एक युवक और उत्साही सज्जन पुरुष हैं। शासन के उच्च पदाधिकारी होते हुए भी उनमें अहंकार का अभाव है। सत्साहित्य के प्रकाशन के प्रति उनकी स्वाभाविक अभिरुचि है। उसी अभिरुचि का मूर्त रूप है-प्राकृत भारती प्रकाशन संस्थान । एक दशक की स्वल्पावधि में प्राकृत भारती ने बहुत ही महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट प्रकाशन विविध भाषाओं में किए हैं। कुछ प्रकाशन इतने शानदार और कलात्मक हुए हैं कि देखते ही बनते हैं। प्राकृत भारती के प्रकाशनों को 'उत्कृष्ट प्रकाशन' निस्संकोच कहा जा सकता है। श्रीयुत् मेहता ने प्रकाशन के क्षेत्र में ही नहीं, सेवा के क्षेत्र में भी एक कीर्तिमान स्थापित किया है । उन्होंने "श्री भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति" की संस्थापना कर हजारों अपंग/विकलांग और असहाय व्यक्तियों की सेवा-सुश्रुषा कर श्रमरण भगवान् महावीर के आदर्श सिद्धान्तों को मूर्तरूप प्रदान किया है । उनकी यह सेवा भावना प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ती रहे-यही मंगल कामना और भावना है। उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का संक्षिप्त हिन्दी सार श्री कस्तूरमल बांठिया ने तैयार किया जो सन् १९८२ में "बांठिया फाउन्डेशन," कानपुर से प्रकाशित हुआ है, पर उस संक्षिप्त सार में मूल कथा का भाव भी पूर्ण रूप से उजागर नहीं हो सका है। इस बृहद्काय ग्रन्थ में बहुत ही विस्तार के साथ कथा को प्रस्तुत किया है । आशा ही नहीं अपितु इस ग्रन्थ रत्न का सर्वत्र समादर होगा । प्रबुद्ध पाठक-गरण इस ग्रन्थ रत्न का पारायण कर अपने जीवन को पावन बनायेंगे । एक बात और मैं निवेदन करना चाहूँगा, वह यह है कि यह ग्रन्थ रत्न भारती-भण्डार का शृगार है । इस ग्रन्थ रत्न में मूर्धन्य मनीषी लेखक ने चिन्तन के लिये विपुल सामग्री प्रदान की है। इसमें एक नहीं, अनेक ऐसे शोध-बिन्दु हैं, जिन पर शताधिक पृष्ठ सहज रूप से लिखे जा सकते हैं। मेरा स्वयं का विचार ग्रन्थ में आए हुए चिन्तन-बिन्दुओं पर तुलनात्मक व समीक्षात्मक दृष्टि से लिखने का था, पर, दिल्ली के भीड़ भरे वातावरण में यह सम्भव नहीं हो सका। एक के पश्चात् दूसरा व्यवधान आता गया और प्रस्तावना लेखन में आवश्यकता से अधिक विलम्ब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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