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भी होता गया। अतः मैंने अन्त में यही निर्णय लिया कि प्रस्तावना अति-विस्तार से न लिखकर संक्षेप में ही लिखी जाय। उस निर्णय के अनुसार मैंने संक्षेप में प्रस्तावना लिखी है । मैं सोचता हूँ कि यह प्रस्तावना प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगी
और शोधार्थियों के लिये कुछ पथ-प्रदर्शक भी बनेगी। आज भौतिकवाद के युग में मानव भौतिक चकाचौंध में अपने आप को भूल रहा है। स्वदर्शन को छोड़कर प्रदर्शन में उलझ रहा है। ऐसी विकट वेला में प्रात्मदर्शन की पवित्र प्रेरणा प्रदान करने वाला यह ग्रन्थ सभी के लिये आलोक स्तम्भ सिद्ध होगा।
१ जनवरी, १९८५ जैन भवन, नई दिल्ली
देवेन्द्र मुनि शास्त्री
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