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________________ उपमिति-भव-प्रपच कथा इस ग्रंथ के अनुघाद की कल्पना उबुद्ध हुई। श्रीयुत् मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया ने नौ वर्ष की लघुवय में कुंवरजी आनन्दजी से यह ग्रंथ सुना था, तभी से वे इस ग्रन्थ की महिमा और गरिमा से प्रभावित हो गये । उन्होंने मन में यह संकल्प किया कि यदि इसका अनुवाद हो जाये तो गुजराती भाषा-भाषी श्रद्धालु वर्ग लाभान्वित होंगे, उन्हें नया आलोक प्राप्त होगा। कथा के माध्यम से द्रव्यानुयोग की गुरु-गम्भीर ग्रन्थियाँ इस ग्रंथ में जिस रूप से सुलझाई गई है, वह अपूर्व है । अतः उन्होंने 'श्री जैन धर्म प्रकाश' मासिक पत्रिका में सन् १९०१ में धारावाहिक रूप से इस कथा का गुजराती में अनुवाद कर प्रकाशित करवाना प्रारम्भ किया। पर, अनुवादक अन्यान्य कार्यों में व्यस्त हो गया और वह धारावाहिक कथा बीच में ही स्थगित होगई, तथा पुनः इस का धारावाहिक प्रकाशन सन् १९१५ से १६२१ तक होता रहा । जिज्ञासू पाठकों की भावना को सम्मान देकर सम्पूर्ण ग्रंथ का अनुवाद जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर ने सम्वत् १९८० से लेकर १९८२ तक की अवधि में तीन भागों में ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया। प्रस्तुत ग्रंथ पर मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया ने सविस्तृत प्रस्तावना भी लिखी, जो "सिद्धर्षि' ग्रंथ के नाम से स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित हुई है। यह प्रकाशन सन् १६३६ में हुआ। प्रस्तावना में कापड़िया की प्रकृष्ट प्रतिभा के संदर्शन होते हैं । प्रतिभावान लेखक ने सरल और सुबोध भाषा में उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा के रहस्य को उद्घाटित किया है, वह अद्भुत है, अनुपम है । प्रस्तावना क्या है, एक शोध प्रबन्ध ही है, सिद्धषि पर। आश्चर्य है-हिन्दी, जो भारत की राष्ट्र भाषा है, उसमें इस ग्रंथ का अनुवाद अब हो रहा है ! इस अनुवाद के मूल प्रेरक हैं-महामहिम प्राचार्यप्रवर १००८ श्री हस्तीमल जी महाराज ने जब इस ग्रंथ को पढ़ा तो उनके अन्तर्मानस में यह विचार उबुद्ध हुआ कि इस प्रकार का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ अभी तक हिन्दी पाठकों को उपलब्ध नहीं हो सका है; यदि इस ग्रंथ का अनुवाद हो जाये तो हिन्दी पाठकों के लिये अत्यधिक श्रेयस्कर रहेगा। उन्होंने अपनी मर्यादित भाषा में श्री देवेन्द्रराज जी मेहता को संकेत किया कि यह ग्रंथ बहुत ही उपयोगी है। अध्यात्मप्रेमियों के लिए आलोक स्तम्भ की तरह है । यदि इस ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद हो तो प्रबुद्ध पाठक लाभान्वित होंगे। आचार्यप्रवर के संकेत को पाकर श्रीयुत् मेहता ने लालचन्द जी को अनुवाद करने के लिये उत्प्रेरित किया। लालचन्द जी जैन एक उत्साही, भावक हृदय के सज्जन हैं। उन्होंने भावना से विभोर होकर अनुवाद का कार्य किया है। अनुवाद की पाण्डुलिपि परिष्कार के लिए श्री मान देवेन्द्रराज जी मेहता सन् १९८० में मेरे पास लाये, मैंने ग्रंथ को प्राद्योपान्त पढ़ा, कुछ परिष्कार भी किया । हमारी विहार यात्रा निरन्तर चल रही थी । इतने बड़े ग्रन्थ की पाण्डुलिपि विहार में साथ रखना सम्भव नहीं था और मेरे सामने अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का लेखन कार्य था, अत: पाण्डुलिपि के परिष्कार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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