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प्रस्तावना
सिद्धर्षि, ज्यों-ज्यों उस ग्रंथ को पढ़ते गये, त्यों-त्यों उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। और, जब तक गर्षि वापिस लौटे, तब तक, उनका भूलाभटका मन, सही रास्ते पर आ चुका था।
सामने से आते गर्गषि को देखकर, वे अपने स्थान से उठे और उनके चरणों में गिर कर अपनी भूल की क्षमा-याचना करते हुए, वापस अपने रास्ते पर आने की इच्छा प्रकट की।
'तू मेरे वचनों को याद रखकर, प्रतिज्ञा-पालन करने के लिए यहाँ वापस आ गया, फिर तेरे जैसे विद्वान् शिष्य को वापस पाकर किस गुरु को प्रसन्नता न होगी ?
गुरु के वचन सुन कर सिद्धर्षि का मन प्रसन्न हो गया। गुरु ने उन्हें प्रायश्चित्त दिया और अपने पद पर बैठा कर, साधना की प्रेरणा प्रदान की।
सिद्धर्षि ने, अपना दायित्व समझा और लोगों को बोध देने की भावना से इस 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' की रचना की। सिद्धर्षि की यह मूल्यवान् कृति, उनके विद्वत्तापूर्ण प्रदाय को, भारतीय जन-मानस में और भारतीय-साहित्यिक जगत में, उन्हें अविस्मरणीय बनाये रखने की पर्याप्त सामर्थ्य रखती है।
इस महान् ग्रंथ का सम्मान, सिर्फ भारत में ही नहीं, इंग्लैंड और फ्रांस के विद्वानों में भी ख्याति अजित कर चुका है। पाठकगण, इसके सद्बोध-सन्देश को अपनाकर, अपना जीवन-पथ पालोकित बना सकते हैं ।
सन् १९०५ में उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का मल डॉ. हरमन जैकोबी ने "बंगाल रोयल एशियाटिक जरनल' में प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। यह कार्य पहले डॉ० पीटर्स ने प्रारम्भ किया था। उन्होंने ६६-६६ पृष्ठों के तीन भाग प्रकाशित किये । उसके पश्चात् डॉ. पीटर्स का निधन हो गया । उस अपूर्ण कार्य को पूण करने के लिये डॉ. जैकोबी (बोन) को कार्यभार सम्भलाया गया। उन्होंने द्वितीय प्रस्ताव को पुन: मुद्रित करवाया और सम्पूर्ण ग्रंथ १२४० पृष्ठों में सम्पन्न हुआ। उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ पर मननीय प्रस्तावना भी लिखी। इस ग्रन्थ रत्न को प्रकाशित करने में उन्हें लगभग १६ वर्ष का समय लगा।
सन १६१८ में श्री देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक ग्रंथमाला, सूरत से उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का पूर्वार्द्ध प्रकाशित हुप्रा और सन् १६२० में उसका उत्तरार्द्ध प्रकाशित हुआ । यह ग्रंथ पत्राकार प्रकाशित है।
संस्कृत भाषा में निर्मित होने के कारण सामान्य जिज्ञासु पाठक इस ग्रंथ रत्न का स्वाध्याय कर लाभान्वित नहीं हो सकता था, अतः विज्ञों के मस्तिष्क में
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