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१५. महामोह का प्रबल आक्रमण
अकलंक मुनि से उपेक्षित और महामोह एवं परिग्रह के आश्रित होने के कारण इन दोनों के पारिवारिक लोग एक-एक करके मेरे पास आ-पा कर मुझे पीड़ित करने लगे। उनके अधीनस्थ एक व्यक्ति के जाते ही दूसरा पा जाता और कुछ न कुछ कारण निकाल कर मेरे पास रहने लगता। [७८१-७८२]
हे अगृहीतसंकेता! महामोह के परिवार द्वारा मैं जिस प्रकार पीड़ित किया गया, यदि उसका विस्तृत वर्णन करने बैठतो वह बहुत लम्बा हो जायगा और तुम भी मुझे वाचाल कहने लगोगी, इसलिये संक्षेप में कहता हूँ, सुनोमहामोह के प्रत्येक सेनानियों का घनवाहन पर प्रयोग
चित्तवत्ति महाटवी में प्रमत्तता नदी के बीच स्थित तविलसित द्वीप के बारे में तो तुम्हें याद ही होगा। पूर्ववणित इस द्वीप में चित्तविक्षेप मण्डप, तृष्णा वेदिका और उस पर विपर्यास सिंहासन पर बैठे महामोह राजा अपने अविद्या शरीर से शोभायमान थे, यह भी तुम्हें याद होगा। विमर्श और प्रकर्ष ने प्रस्ताव ४ में इनका वर्णन किया है । हे विशालाक्षि ! यह सब वर्णन तुम्हें अच्छी तरह याद होगा। [७८३-७८७]
अगृहीतसंकेता ने कहा कि उसे यह सब याद है, अब आगे सुनायो ।
संसारी जीव ने धनवाहन के भव की अपनी कथा को आगे बढ़ाते हुये कहा
हे सुलोचने ! इस सम्बन्ध में विमर्श ने प्रकर्ष को जो बतलाया था वह तुझे स्मरण में होगा कि उस वेदिका पर मिथ्यादर्शन आदि बहत से महामोह के अधीन राजा, योद्धा, माण्डलिक, सामन्त आदि जो अपनी स्त्रियों, परिवार और कर्मचारियों के साथ बैठे थे उनमें से प्रत्येक योद्धा सपरिवार मुझे कथित करने के लिये मेरे पास आ पहुँचा । इसका कारण यह था कि इन सब का नायक महामोह मेरे समीपवर्ती था। फलस्वरूप उनमें से शायद ही कोई बचा हो जिसने मुझे त्रास न दिया हो। [७८८-७६१]
सब से पहले महामूढता ने मुझे उस भव के वर्तमान भावों और परिस्थितियों में इतना गृद्ध और मूछित कर दिया कि मैं सन्मार्ग से भ्रष्ट हो गया ।
मिथ्यादर्शन ने सदागम को मुझ से दूर हटाया और मेरी बुद्धि में इतना भ्रम उत्पन्न कर दिया कि मैं असत्य को सत्य मानने लगा।
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