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________________ २६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा अक्षय आनन्द को प्राप्त कराने वाली कही गई है। जब घनवाहन इस कन्या से विवाह करेगा तब मोहराज के फन्दे से छूटेगा। यह कन्या अपनी शक्ति के कारण पापी महामोह की प्रबल विरोधिनी है । इस कारण ये दोनों कदापि एक साथ नहीं रह सकते । [७५३-७६३] ___ चारित्रधर्मराज की एक दूसरी निरीहता नामक निष्पाप सर्वांगसुन्दरा मनोहर कन्या है, जो विरति देवी की कुक्षि से उत्पन्न हई है । उसके भाई उसे अत्यधिक सन्मान देते हैं और चारित्रधर्म के राज्य में वह सर्व प्रिय है। यह सम्यकदर्शन सेनापति का अत्यन्त अभीष्ट है, सद्बोध मन्त्री की अतिवल्लभ है और स्वामीभक्त तन्त्रपाल संतोष द्वारा पाली पोषी गई है। यह स्वभाव से ही अति श्रेष्ठ है। इसकी सभी इच्छायें पूर्ण हो गई हैं, अतः वह वस्त्र, आभूषण, माला प्रादि शरीर-शोभा की इच्छा नहीं करती। इसे स्वर्ण, रत्न या विविध प्रकार के भोगों से आकर्षित नहीं किया जा सकता। यह भाग्यशालिनी कन्या समग्र जगत् वन्द्य मुनियों की प्रिय है, दुःखों का नाश करने वाली है और चित्त को आनन्द देने वाली है। जब घनवाहन इस लावण्यवती कन्या से विवाह करेगा तब वह पापी परिग्रह के फन्दे से छूटेगा । यह कन्या दुरात्मा परिग्रह की शत्रु है, अतः उसे देखते ही वह पापी अत्यन्त भयभीत होकर भाग जायेगा। [७६४-७७१] अकलंक-भगवन् ! महामोह और परिग्रह का निर्दलन करने वाली इन दोनों कन्याओं का लग्न घनवाहन से कब होगा ? कोविदाचार्य-बहुत समय पश्चात् घनवाहन को इन कन्याओं की प्राप्ति होगी और तभी इनका विवाह भी उसके साथ होगा। अकलंक-यदि आपकी प्राज्ञा हो तो इन दोनों कन्याओं को प्राप्त करवाने में मैं धनवाहन की सहायता करू ? कोविदाचार्य हे महाभाग ! अभी इन कन्याओं को प्राप्त करवाने का तेरे जैसे व्यक्ति को अधिकार नहीं है । इन दोनों कन्याओं को प्रदान करने का मात्र कर्मपरिणाम महाराज को ही अधिकार प्राप्त है। जब वे इन्हें देने के लिये सहमत होंगे तभी तेरे जैसे भी उसमें हेतु बन सकेंगे।* जब उन्हें लगेगा कि धनवाहन इन कन्याओं को प्राप्त करने योग्य हो गया है तभी वे सुखप्रदाता भाग्यशालिनी कन्यानों का लग्न उसके साथ करेंगे । अतएव अनधिकार चेष्टा होने के कारण तू इसकी चिन्ता छोड़ दे । जो वस्तु तेरे हाथ में नहीं है उसके लिये आग्रह मत कर और निराकुल होकर अपने स्वाध्याय ध्यान में तल्लीन हो जा। हे भद्रे ! गुरुजी के वचन को स्वीकार कर अकलंक मुनि ने मेरे बारे में चिन्ता करना छोड़ दिया और स्वयं पातुरता-रहित होकर स्वाध्याय, ज्ञान, ध्यान में तल्लीन हो गये। [७७२-७८०] • पृष्ठ ६७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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