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________________ प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ २५७ कर्मपरिणाम राजा अत्यन्त कुपित होता है और उसे मनुष्य जन्म रूपी रत्नद्वीप से निकाल कर संसारसागर में निरन्तर दुःख सहने के लिये फैंक देता है। हे घनवाहन ! उपर्युक्त चार व्यापारियों की कथा के गूढार्थ को समझ कर ही पांचवें मुनि ने संसार का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की। कथा में सच्ची घटना और रूपक को बहुत ही सुन्दरता से प्रतिपादित किया है । इसके रहस्य का चिन्तन कर्म को काटने वाला है । कौन सा बुद्धिमान भव्य पुरुष ऐसा होगा जो इस कथा के गूढार्थ को समझ कर मुनित्व को स्वीकार नहीं करेगा? रत्नद्वीप जैसे मनुष्य भव को प्राप्त कर अपने प्रात्मा रूपी जहाज को गुणरत्नों से नहीं भरेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त करना नहीं चाहेगा? [४२०-४२२] [इस कथा के विचार मात्र से प्राणी संसार से भयभीत हो जाता है और धर्म में अनुरक्त हो जाता है । अब तो तुझे मुनि द्वारा कही गई कथा का भावार्थ समझ में आ गया होगा।] हे अगृहीतसंकेता ! उस समय मेरी कर्म-स्थिति भी कुछ जीर्ण हुई थी, जिससे मेरे मन में भी कुछ भद्र भाव जागृत हुए और अकलंक की बात मुझे किंचित् सुखकारी और मधुर लगी। फिर भी मैं चुप ही रहा, कुछ भी उत्तर नहीं दिया। ८. संसार-बाजार (प्रथम चक्र) मेरे मित्र अकलंक के साथ मैं (घनवाहन के भव में संसारी जीव) छठे मुनिराज के पास गया । हमने मुनिराज का वन्दन किया और उन्होंने हमें धर्मलाभ कहा । अकलंक ने मुनिराज से वैराग्य का कारण पूछा, इस पर मुनिराज ने कहाभाई अकलंक ! आदि-अन्त रहित संसृति नामक एक नगरी है। उस नगरी में स्थित बाजार ही मेरे वैराग्य का कारण बना है। [४२३] ___ अकलंक ने विचार किया कि जैसा तीसरे मुनि ने अपने वैराग्य का कारण अरहट चक्र को बतलाया वैसा ही यह बाजार भी होगा। फिर भी उसने मुनि से पूछ ही लिया--भगवन् ! इस बाजार से आपको कैसे वैराग्य हुआ ? स्पष्ट करने की कृपा करें। [४२४-४२५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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