SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1039
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उत्तर में मुनि बोले---भाग्यवान ! सामने जो ध्यानमग्न मुनि महाराज बैठे हैं, उन्होंने अनेक जन्मों को उत्पन्न करने वाले इस बाजार को मुझे बतलाया ।* इस बाजार में बहुत लम्बी-लम्बी भव रूपी श्रेणियां हैं। दुकानें सुख-दुःख नामक किराणें से भरी हुई हैं। इसमें खरीद-बिक्री में व्यस्त अनेक जीव रूपी व्यापारी किराणा एकत्रित करने और अपने स्वार्थ में तत्पर आकुल-व्याकुल दिखाई दे रहे हैं। वहाँ निम्न, मध्यम और उत्कृष्ट पुण्य-पाप रूपी मूल्य देकर स्वानुरूप वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं । अनेक पुण्यहीन गरीब जीवों से यह बाजार भरा हुआ है, सर्वदा खुला रहता है और व्यापार चलता रहता है। इस संसृति नगरी का बलाधिकृत सेनापति महामोह है, जिसके अधीन काम क्रोध आदि अधिकारी हैं। वहाँ कर्म नामक रौद्र ऋण दाता और जीव कर्ज लेने वाले हैं । इस कर्जदाता से कोई नहीं बचा सकता। ये लेनदारों को ऐसी अति दारुण जेल में डाल देते हैं जहाँ से छुटकारा ही न हो सके । वहाँ कषाय नामक दुर्दान्त मदोन्मत्त बच्चे लोगों को उद्वेलित करते हुए कलकल करते रहते हैं। यह बाजार अनेक आश्चर्यजनक नवीनताओं से युक्त है । निरन्तर आकुल-व्याकुल और जागृत रहने वाला इसके समान दूसरा कोई बाजार संसार में नहीं है । [४२६-४३४] सूक्ष्म निरीक्षण करने पर मुझे ज्ञात हुआ कि इस बाजार में रहने वाले सभी प्राणी अन्दर से अत्यन्त दु:खी हैं । हे भाग्यशाली ! सन्मुख ध्यानस्थ बैठे मेरे गुरु महाराज ने कृपापूर्वक उस समय मेरी आँखों में ज्ञानांजन लगाया, जिससे मेरी दृष्टि अत्यन्त निर्मल हो गई और दुकानों के अन्त में एक मठ जैसा शिवालय दूर से मुझे दिखाई दिया। सद्बुद्धि-दृष्टि से इस शिवालय में मुक्त नामक अनन्त पुरुष मुझे दृष्टिगोचर हुए। वे निरन्तर आनन्द से युक्त और समस्त प्रकार की बाधापीड़ा से रहित थे । मुझे लगा कि मैं भी इन दुकानों में से किसी एक में व्यापार कर रहा हूँ, पर शिवालय को देखने के पश्चात् मुझे उसी में जाने की तीव्र इच्छा वाला निर्वेद जाग्रत हुा । मैंने गुरु महाराज से कहा- नाथ ! चलिये हम इस बाजार को छोड़कर इसके अन्त में स्थित शिवालय में चलकर रहें। इस कोलाहल पूर्ण बाजार में तो मुझे क्षण भर भी शान्ति नहीं मिलती। मेरी इच्छा आपके साथ उस मठ में जाने की ही है। मेरी इच्छा सुनकर गुरु महाराज बोले-'हे नरश्रेष्ठ ! यदि तुझे मठ में जाने की ऐसी तीव्र इच्छा है तो तू मेरी दीक्षा ग्रहण कर, क्योंकि यह दीक्षा ही शीघ्रता से मठ में पहुँचाती है। उत्तर में मैंने कहा-'भगवन् ! यदि ऐसी बात है तो मुझे शीघ्र ही दीक्षा दीजिये, इसमें थोड़ा भी विलम्ब मत करिए।' मेरा उत्तर सुनकर उन्होंने मुझे सर्वज्ञ मत की पारमेश्वरी दीक्षा प्रदान की और उस मठ में पहुँचने के कारण रूप कर्त्तव्य अनुष्ठान समझाये । इन कर्तव्यों का पालन करते हुए ही अभी मैं यहाँ रह रहा हूँ। [४३५-४४४] • पृष्ठ ६४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy