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उपमिति भव-प्रपंच कथा
मुनिराज द्वारा शान्ति से कहे गये उपर्युक्त उपदेशामृत को सुनकर मूढ जैसे पापी प्राणी क्रोधित हो जाते हैं और क्रोध के आवेश में ही मुनि से कहते हैं - अरे साधु ! हमें शिक्षा देने की और अपनी चतुराई बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैसे आये हो वैसे ही उलटे पैरों वापस लौट जाओ । अरे पापिष्ठों ! तुम भोगों की इतनी निन्दा करते हो और हमारे माने हुए धर्म की बुराई करते हो, अतः सचमुच तुम हमारे शत्रु हो । तुम्हें तो सीधे यम के द्वार पहुँचाना चाहिये । हमारा ऐसा सुन्दर विशुद्ध धर्म तुम्हें प्रिय नहीं है तो हे अधमपुरुषों ! हमें भी तुम्हारे धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है । हे श्रमरणाधमों ! तुम अपने लोगों को तुम्हारा सद्धर्मं बतलाओ, हमें तुम्हारे धर्म से कोई प्रयोजन नहीं है । [४११-४१५]
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मूढ प्राणियों के क्रोधित होकर उपर्युक्त उत्तर देने पर साधुनों को उन पर और अधिक दया आती है । वे एक बार और उन्हें सदधर्म के लक्षण बताने का प्रयत्न करते हैं । मुनिराज द्वारा पुनः धर्म के लक्षण बताने को उद्यत होने पर मूढ प्राणी आँखें लाल कर, क्रोध से होठ दबाकर लात मारने और धक्का-मुक्की करने को तैयार हो जाते हैं और एक दो लात तो मार ही देते हैं । मूढ की ऐसी चेष्टानों को देखकर शान्त मुनि अपने मन में निश्चय करते हैं कि, यह प्राणी किसी भी प्रकार सन्मार्ग पर नहीं आा सकता, अत: वे ऐसे प्राणी के प्रति उपेक्षा धारण करते हैं । * यह निश्चय हो जाने पर कि अमुक गाय वन्ध्या है तब फिर उससे दूध प्राप्ति का प्रयत्न व्यर्थ ही है । [ ४१६-४१६]
अन्तिम निष्कर्ष
जैसे पूर्व कथित चारु के उपदेश को योग्य और हितज्ञ ने अंगीकार कर तदनुसार प्राचरण / व्यापार किया, विशिष्ट अमूल्य रत्नों का क्रय कर संग्रह किया, रत्नों से अपने-अपने जहाजों को भरा और चारु के साथ स्वदेश / स्वस्थान को गये । स्वस्थान में पहुँच कर ये तीनों रत्नों का व्यापार कर सततानन्द के भाजन
। मूढ के दुर्व्यवहार से कुपित होकर रत्नद्वीप के भूपति ने उसे रत्नद्वीप से निष्कासित कर समुद्र में फिंकवा दिया जिससे वह मूढ अनन्त दुःख-पीड़ानों का भाजन बना | वैसे ही भाई घनवाहन ! देशविरतिधारक श्रावक (योग्य) और भद्र प्रकृति वाले भव्य मिथ्यादृष्टि ( हितज्ञ ) जैसे प्रारणी जब मुनिराज ( चारु) का उपदेश सुनते हैं तब उसके अनुसार आचरण करने लगते हैं और अन्त में सर्वज्ञ प्ररूपित पाँच महाव्रतों को स्वीकार करते हैं, जिससे उनमें ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती है। धीरे-धीरे उनकी प्रात्मा ऐसे गुण रत्नों से परिपूर्ण हो जाती है और अन्त में परमपद (मोक्ष) को प्राप्त कर निरन्तर सतत ग्रनन्त श्रानन्द-समूह के पात्र
ते हैं। क्योंकि, वहाँ उन्हें आत्मा में एकत्रित ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी रत्नों काही व्यापार करना होता है । मूढ जैसे प्राणी जब पाप से पूरे भर जाते हैं तब * पृष्ठ ६४४
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