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प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ
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हैं, गाते हैं, विलोपन करते हैं और सब प्रकार के सुख साधन हमें यहाँ प्राप्त हैं। हे श्रमरणों ! ऐसे सुख सामग्री से परिपूर्ण संसार को छोड़कर मोक्ष में जाने का तुम्हारा विचार हमें तो ठीक नहीं लगता। छोड़ो मोक्ष की बात को। हमें तो संसार की तुलना में मोक्ष में अधिक सुख नहीं लगता। पहले यहाँ के प्राप्त सुख को भोग लें, फिर मोक्ष जाने की सोचेंगे। [३६१-३६५]
साधुओं ! जो सद्धर्म तुम्हारे मन में स्थित है वह तो हमें भी ज्ञात है। तुम धर्म का गर्व क्यों करते हो ? देखो, हम भी अनेक पाडे, बकरे और सूअरों को मारकर उनके खून से चंडिका का तर्पण करते हैं। गोमेध, अश्वमेघ और नरमेघ यज्ञ करते हैं । अनेक बकरों की यज्ञ में आहुति देते हैं । अनेक प्राणियों का मर्दन कर चारों प्रकार के यज्ञ करते हैं। बेचारे अनेक पशुओं को उस बुरी योनि से निकाल कर उन्हें समस्त दुःखों से मुक्त करते हैं। हमारी पापऋद्धि से हम दिनप्रतिदिन जीवों को मार-मार कर यज्ञ स्थान को मांस से भर देते हैं, * फिर अपनी इच्छानुसार उसका दान कर देते हैं। इस प्रकार हम नित्य ही अपने धर्मकृत्य द्वारा अपने कर्तव्य का पालन कर स्वयं को कृतकृत्य समझते हैं, अतएव तुम्हारे द्वारा बताये गये धर्म की हम बात भी नहीं करते । [३६६-४०१]
__ मढ जैसे अभव्य प्राणियों द्वारा आचार्य महाराज को ऐसा उत्तर देने पर भी उन शान्त-मूर्ति धैर्यशाली मुनियों को इन पर अधिक दया आती है और उन्हें प्रतिबोध देकर मार्ग पर लाने के विचार से वे पुनः कहते हैं :
भद्रों ! संसार को बढ़ाने वाले ऐसे झूठे भ्रम में फंसे रहना उचित नहीं है । तुम विपरीत मार्ग पर जा रहे हो। तुमने जिन इन्द्रिय-भोगों की बात कही इनका परिणाम तो सर्प-दंश की भांति भयंकर है। इनका अन्त बहुत कटु है। वे पाप से आच्छन्न और महा भयंकर क्लेश-वर्धक हैं। तुम स्त्रियों में आसक्त रहते हो, पर वास्तव में तो वे प्रायः अकार्यकर्ती होती हैं और स्वभाव से माया की छाब ही हैं। उनके विलास, नाच, गायन और चाल सभी विडम्बना मात्र ही है । भाइयों ! मोक्ष तो अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है और वह आनन्द सर्वदा बना रहता है । जीवों की आत्म-व्यवस्था/आत्म-स्वरूप सभी प्रकार के क्लेशों से रहित है। अतः मनुष्य जन्म को प्राप्त कर खाने-पीने और विलास में डूबे रहकर आत्म-प्रवञ्चना करना तुम्हारे जैसे व्यक्तियों के योग्य नहीं है। थोड़े दिनों तक टिकने वाले इन्द्रिय-भोगों में आसक्त रहकर, मोक्ष के राजमार्ग को छोड़कर तुम अनन्त संसार के फन्दे में मत फंसो। धर्म के अनुष्ठान करने की बुद्धि से अन्य जीवों को मारने का पाप कर रहे हो, यह तो संसार को बढ़ाने वाला है । अतः ऐसे कुशास्त्रों के दुराग्रह में फंसकर ऐसा पाप का काम मत करो। पाप-दोषों का नाश करने वाले अहिंसा धर्म में प्रवृत्ति करो। [४०२-४१०]
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