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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
और मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। लोक व्यवहार की अपेक्षा रखनी चाहिये । गुरु और बड़े लोगों को मान देना और उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करना चाहिये । दानादि सद्गुणों में विशेष प्रवृत्ति, भगवान् और देव की उदार पूजा, साधु महात्माओं की निरन्तर शोध और उनका संयोग मिलने पर विधिपूर्वक धर्मशास्त्र का श्रवण करना चाहिये । यत्नपूर्वक शास्त्रों की पर्यालोचना करते हुए उनके अर्थ/ रहस्य को समझ कर उसे जीवन में उतारना, धैर्य धारण करना, भविष्य का विचार करना और मृत्यु को सदा अपने सम्मुख समझना चाहिये । परलोक-साधन में तत्परता, गुरुजनों की सेवा, योगपट्ट का दर्शन, योग के रूप को अपने मन में स्थापित करना, धारणा को स्थिर करना,किसी भी प्रकार के आन्तरिक विक्षेप का त्याग करना,और मन वचन काया के योगों की शुद्धि का प्रयत्न करना चाहिये, भगवान् के मन्दिर-मूर्तियों को तैयार करवाना चाहिये । तीर्थंकरों के वचनों/शास्त्रों को लिखवाना, मंगल जप/ नमस्कार मंत्र का जाप करना, चार शरण को स्वीकार करना और अपने दुष्कृत्यों की निन्दा करनी चाहिये । अपने सत्कृत्यों की बार-बार अनुमोदना करना, मंत्रदेवों की पूजा करना, पूर्व पुरुषों के प्रशस्त चरित्रों को पुनः-पुनः श्रवण करना, उदारता रखना और उत्तम ज्ञान में प्रतिपल रमण करना चाहिये । इस प्रकार की प्रवृत्ति से तुम में साधुधर्म के अनुष्ठानों को करने की योग्यता प्राप्त होगी।
इसके पश्चात् बाह्य और अन्तरंग संग का त्याग करने से और दूसरों द्वारा प्राप्त आहार पर तुम्हारा जीवन आधारित होने से तुम भाव-मुनि बनोगे। फिर तुम्हें प्रतिदिन सूत्र और उसके अर्थ को ग्रहण करने की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये । मन में वस्तु तत्त्व को समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिये। अपने और दूसरों के शास्त्रों का अध्ययन करना, परोपकार के कार्यों में सदा तत्पर रहना, पर-पक्ष के प्राशय को भली प्रकार समझना, अपने नाम को सार्थक करने वाले गुरु के साथ सच्चा सम्बन्ध कैसे स्थापित हो इसकी शोध करना, गुरु का भली-भांति विनय करना और सभी अनुष्ठानों की विधियों को करने के लिये तत्पर रहना चाहिये। सात मण्डलि (सूत्र, अर्थ, भोजन, कालग्रहण, आवश्यक, स्वाध्याय और संथारा) में पूर्ण प्रयत्न करना, आसन-स्थापनाचार्य और छोटे-बड़े साधुओं का जो क्रम शास्त्रों में बताया गया है उसका बराबर पालन करना चाहिये। साधु के योग्य उचित प्रशन (भोजन) क्रिया का पालन करना, विकथा आदि विक्षेपों का सर्वथा त्याग करना, सभी क्रियानों में भावपूर्वक उपयोग विवेक रखना और सूत्रार्थ श्रवण की विधि को सीखना चाहिये। बोध-परिणति का आचरण करना सम्यक् ज्ञान में स्थिरता का प्रयत्न करना और मन को स्थिर करना चाहिये। ज्ञान-प्राप्ति का अभिमान नहीं करना चाहिये। ज्ञानहीनों का मजाक नहीं उड़ाना, विवाद का त्याग करना, समझ रहित व्यक्ति की बुद्धि का पृथक्करण करने के प्रयास का त्याग करना अथवा अनपढ़ और पढ़े हुओं के प्रति व्यवहार में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करना चाहिये । कुपात्र मनुष्य को शास्त्र का अभ्यास नहीं कराना चाहिये । इस प्रकार की प्रवृत्ति से तुम्हें ऐसी योग्यता प्राप्त होगी कि गुणानुरागी लोग तुम्हारा बहमान
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