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________________ प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ २५१ वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति ही मोक्ष है और उसकी प्राप्ति बोध, श्रद्धा और अनुष्ठान (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) से होती है। यह सब कुछ जानते हुए भी तुम अपने आपको ठगते हो और महर्ध्य रत्नों की परीक्षा कर उन्हें एकत्रित नहीं करते हो तो फिर तुम्हारा इस मनुष्य जन्म रूपी रत्नद्वीप में आना व्यर्थ नहीं तो और क्या है ? मुनिश्रेष्ठ के उपर्युक्त वचन सुनकर हितज्ञ जैसे भद्र भव्य मिथ्यादृष्टि जीव सोचते हैं कि भगवत्स्वरूप मुनिराजों का मेरे प्रति प्रेम है, वात्सल्य है । इनका ज्ञान अतिशय अगाध है और इनका कथन हृदयवेधी/असर कारक है। उपदेश के परिणामस्वरूप उनके मन में उच्च शुभ भावना उत्पन्न होती है और अभी तक धन-प्राप्ति और विषय भोग के प्रति जो आसक्ति थी वह कम होने लगती है। फिर वे मुनियों से सच्चा धर्म-मार्ग पूछते हैं, शिष्यभाव धारण कर विनयादि से गुरु का मन प्रसन्न करते हैं। तब गुरु महाराज उन्हें गृहस्थोचित एवं साधुओं के योग्य देशविरति और पूर्ण निवृत्ति का धर्म-मार्ग बताते हैं तथा उसे विशिष्ट यत्न पूर्वक प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं : भद्रों ! यदि तुम्हारी इच्छा है कि तुम्हें विशुद्ध सद्धर्म/प्रात्म-धर्म की प्राप्ति हो तो सब से पहले तुम्हें इन कर्तव्यों का पालन करना चाहिये-तुम्हें दयालुता का सेवन/व्यवहार करना चाहिये, किसी का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिये, क्रोध का त्याग कर दुर्जनों की संगति छोड़ देनी चाहिये और झूठ बोलने का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। दूसरों के गुणों का गुणानुरागी बनना, चोरी न करना, मिथ्याभिमान का त्याग करना, परस्त्री-सेबन का त्याग करना, धन, ऋद्धि अथवा ज्ञान प्राप्ति से फूलना नहीं चाहिये और दुःखी प्राणियों को दुःख से मुक्त करने की इच्छा रखनी चाहिये । पूजनीय गुरुओं की पूजन-भक्ति, देवों का वन्दन, सम्बन्धियों का सम्मान और स्नेहियों की आशा-पूर्ति का प्रयत्न करना चाहिये। मित्रों का अनुसरण करना, अन्य का दोष-दर्शन और निन्दा न करना, दूसरों के गुणों को ग्रहण करना, और अपने गुणों की प्रशंसा में लज्जा का अनुभव करना चाहिये ।* अपने छोटे से सुकृत्य का भी पुन:-पुनः अनुमोदन करना और परोपकार के लिये यथाशक्य प्रयत्न करना चाहिये । महापुरुषों से आगे होकर बातचीत करना, दूसरों के मर्म को प्रकट नहीं करना, धर्म-युक्त व्यक्तियों का अनुमोदन/समर्थन करना, सुवेष/सादी वेशभूषा धारण करना और शुद्ध आचरण का पालन करना चाहिये। इस प्रकार की प्रवृत्ति से तुम्हें सर्वज्ञ प्ररूपित शुद्ध धर्म के अनुष्ठान की योग्यता प्राप्त होगी। गहस्थ-धर्म/श्रावकाचार धारक जनों को अकल्याणकारी मित्रों (मोहादि अन्तरंग शत्रुओं) का सम्बन्ध छोड़ देना चाहिये। कल्याणकारी मित्रों (चारित्र धर्मराजा आदि आन्तरिक मित्रों) से मित्रता बढ़ानी चाहिये । अपनी उचित स्थिति * पृष्ठ ६४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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