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________________ प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ २५३ करेंगे, शांति रूपी लक्ष्मी स्वतः ही प्राप्त होगी और तुम भाव-सम्पत्तियों के आश्रयस्थान बन जाओगे । जब तुम्हारी आन्तरिक वास्तविक योग्यता उपयुक्त प्रकार की हो जायेगी तब गुरु महाराज की तुम पर कृपा होगी और वे प्रसन्न होकर तुम्हें * सिद्धान्त का सार बतायेंगे । फिर तुम में श्रवणेच्छा, श्रवण, ग्रहण, धारणा, ऊहा (सामान्य ज्ञान), अपोह (अर्थ-विज्ञान), विचारणा और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, ये पाठ प्रज्ञा गुरग प्रस्फुटित होंगे । तत्पश्चात् तुम्हें प्रासेवना, प्रत्युपेक्षणा, प्रमाजेन, भिक्षाचर्या आदि की विधि भी अपनी आत्मा के साथ एकमेक करनी होगी। इर्यापथिकी दोषों का प्रतिक्रमण करना, आलोचना लेना, निर्दोष भोजन-विधि सीखना, विधिपूर्वक पात्र स्वच्छ करना, आगमानुसार मल-विसर्जन विधि तथा स्थंडिल भूमि का बराबर निरीक्षण करना होगा। तदनन्तर तुम्हें समस्त उपाधिरहित होकर षड् आवश्यक (प्रतिक्रमण) करना, आगमानुसार काल-ग्रहण, पांच प्रकार का स्वाध्याय, प्रतिदिन की क्रिया में सावधानी, पांच प्रकार के प्राचार का पालन, चरण-करण की सेवना और अंगांगीभाव से आत्मा को अप्रमादी बनाते हुए अति उग्र विहार करना चाहिये । ऐसी प्रवृत्ति से अस्खलित मोक्ष में पहुँच जाने वाले गुण-समूहों की तुम्हें प्राप्ति होगी। इस प्रकार भगवत्स्वरूप सन्मुनि उन्हें सदगुणों के उपार्जन का मार्ग बताते हैं । मुनि के उपर्युक्त उपदेश से जो अभी तक मिथ्यादृष्टि किन्तु स्वयं भद्र एवं भविष्य में हितसाधन की योग्यता वाले भव्य प्राणी हैं वे सावधान हो जाते हैं, भावरत्न (सच्चे धर्म) के परीक्षक बनते हैं, कुधर्मों का त्याग करते हैं और सद्गुणों के उपार्जन में लग जाते हैं । फिर स्वयं ही गुरु से कहते हैं :-- भट्टारक ! हम तो अभी तक महान विपत्तियों के हेतु विषयभोगों से बहुत ही अधिक ठगे गये हैं। धूर्त स्वरूप कुतीथिकों ने हमें बहुत भ्रमित किया है, पर अब हमें ज्ञात हो गया है कि इन सबका कारण हमारा मोह दोष ही था । अब आपने वात्सल्य भाव से कृपा कर हमें विशुद्ध मार्ग बताया है, अतः हे स्वामिन् ! अब हम आपके पूर्वोक्त कथनानुसार ही सब कुछ करेंगे । इस प्रकार के भव्य प्राणियों पर साधुओं की मधुर वाणी का अच्छा प्रभाव होता है और वे उसके अनुसार चलने का निर्णय लेते हैं, जिससे अन्त में वे अपने सच्चे स्व-अर्थ को सिद्ध करने में समर्थ होते हैं। [३८६-३८८] तत्पश्चात् जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि चारु अपने तीसरे मित्र मूढ के पास गया और प्रेमपूर्वक स्वदेश लौटने को कहा । इस पर मढ ने उसे कहा'मित्र ! स्वदेश जाकर क्या करेंगे? अभी तो यहाँ दर्शनीय कई स्थान हैं जिन्हें अभी देखना है । यह रत्नद्वीप रमणीयतम स्थान है। देख, देख ! यह द्वीप चारों ओर से • पृष्ठ ६४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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