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________________ प्रस्ताव ७: भव-मठ २३७ हे सौम्य ! ऐसी स्थिति में इन करुणायुक्त चित्त वाले गुरु महाराज ने स्वकीय कर्मरूपी सन्निपात-ग्रस्त इस चौथे मुनि को प्रतिबोधित किया। इन वैद्यश्रेष्ठ ने एक मठवासी छात्र-तुल्य प्राणी को अपने वचना-मृत औषधि से साधु बना कर स्वस्थ किया, सन्निपात के असर से मुक्त किया । अतः वास्तव में इन्हें श्रेष्ठ वैद्य ही कहा जा सकता है । [२८७-२८८] पुनः इन मुनि ने कहा था कि, 'मेरे में उस समय अन्य चट्टों (परिव्राजकछात्रों) के सहवास से उन्माद था उसे भी इन्होंने प्रयत्नपूर्वक मिटाया ।' इसका फलितार्थ यह है कि गुरु महाराज ने पहले तो बोध द्वारा अज्ञानियों के महा पापकारक अभिग्राहिक मिथ्यात्व का नाश किया, फिर अन्य तीथियों के सहवास से आये हुए उन्माद जैसे अभिनिवेश मिथ्यात्व का क्षय किया। इसके पश्चात् जब प्राणी सम्यक् भाव में आता है तब गुरु महाराज इस मठ रूपी संसार के विस्तार को समझाते हैं और बताते हैं कि यह सारा संसार कैसा है । उस समय यह प्राणी देखता है कि जैसे मठ में विद्यार्थी रहते हैं, उसी प्रकार संसार में प्राणी रहते हैं और कर्म-भोजन के दोष से वे सन्निपात और उन्माद से पीड़ित होते हैं। उन्हें दुःख से पीड़ित रहते, चिल्लाते और नशे में चूर जैसे देखकर तथा बक-बक करते देखकर यह भयभीत हो जाता है। [२८६-२६४] फिर इन मुनि ने अपने गुरु महाराज से कहा-हे पूज्यवर ! चारों गति में संसार-भ्रमण करने वाले सभी प्राणी मुझे दुःखी दिखाई देते हैं, इन्हें देखकर मुझे बहुत उद्वेग होता है। इस पर मुनिराज बोले-भद्र ! जैसे ये सभी प्रारणी तुझे दुःख-समुद्र में डुबे हुए और रक्षणरहित दिखाई देते हैं, तू भी पहले वैसा ही था। तेरे शरीर पर अभी भी कर्म का अजीर्ण दिखाई देता है, उसे जीर्ण करने के लिए मैं तुझे जो क्रिया/अनुष्ठान बताता हूँ उसे तू कर । यदि तू इस क्रिया को नहीं करेगा तो पुनः इस संसार में दुःख ग्रस्त हो जायेगा। [२६५-२६८ गुरु महाराज के उपर्युक्त वचन सुनकर इस मुनि ने जैनेन्द्र मत की दीक्षा ग्रहण की और गुरुदेव ने जिन सक्रियाओं/अनुष्ठानों * को करने के लिए कहा, उन सब को इन्होंने भलीभांति पूर्ण किया। अभी भी ये मुनि कर्म-भोजन से हुए अजीर्ण को प्रतिदिन क्षीरग करते रहते हैं । इस प्रकार मुनि ने अपने वैराग्य का कारण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। [२६६-३००] . भाई धनवाहन ! ऐसा मत समझ कि इस संसार में कर्म-भोजन के अजीर्ण से पीड़ित मात्र ये साधु ही हैं। हम सभी ऐसी ही पीड़ा भोग रहे हैं। मनुष्य जन्म प्राप्त कर हमारे जैसे प्राणियों को भी इस कर्म-अजीर्ण का शोधन करना चाहिए और ऐसा करने के लिए हमें भी दीक्षा-ग्रहण करनी चाहिए। [३०१-३०२] • पृष्ठ ६२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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