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________________ २३६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा व्यक्ति वास्तविक विशुद्ध मार्ग को दूषित करता हया प्रलाप करता है। तपोमार्ग को उड़ाने के लिये तपस्या की हंसी करता है । स्वेच्छानुसार व्यवहार करने का उपदेश देकर मानो नाचता है । आत्मा, परलोक, पुण्य, पाप आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा कहते हुए मानो कूद रहा है। सर्वज्ञ मत के ज्ञाता पुरुषों से जब पराजित हो जाता है तब रोता दिखाई देता है और अपने तर्क की डण्डी से नगारा बजाते हुए गाता हुमा दृष्टिगोचर होता है। हे सौम्य ! इसीलिये जैनेन्द्र मत से विपरीत दृष्टि वाले उन्माद-ग्रह-ग्रस्त लोग नाचते, कूदते, गाते, रोते और खिलखिला कर हंसते हैं, ऐसा कहा गया है। ये सभी प्राणी कर्मरूपी विष के प्रभाव को धारण करते हैं और उनकी धर्म-चेतना नष्ट प्रायः हो जाती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । [२७२-२७३] इन मुनि ने कहा था कि 'सन्मुख विराजमान मेरे गुरुदेव मुनि-पुंगव वैद्यक शास्त्र का प्रगाढ़ परिश्रमपूर्वक अध्ययन कर निष्णात बने हैं। वे कृपा-परायण होने से उन्होंने अपने औषधोपचार से मुझे दारुण सन्निपात के प्रभाव से मुक्त किया।' मुनि का उक्त कथन पूर्णतया घटित होता है। हे सौम्य ! सुन, ये मुनिगण सिद्धान्त रूपी आयुर्वेद का परिश्रमपूर्वक अध्ययन कर, पारंगत विद्वान् बनकर संसारस्थ समस्त प्राणियों के स्वरूप को सम्यक प्रकार से जान लेते हैं। जब किसी भी व्याधिग्रस्त का ये मुनिश्रेष्ठ वैद्यराज निरीक्षण/निदान करते हैं तब उन्हें प्रतीत होता है कि यह प्राणी कर्म-भोजन द्वारा उत्पन्न सन्निपात से ग्रस्त है। फलस्वरूप ऐसे भाग्यशाली मुनियों के हृदय में ऐसे प्राणी पर करुणा उत्पन्न होती है और वे सोचते हैं कि किस उपाय से इस पामर प्राणी को संसार-क्लेश से मुक्त किया जाय? इस निदान के फलस्वरूप वे प्राणी मुनिराज की निन्दा करते हैं, उन पर क्रोध करते हैं अथवा उन्हें मारते हैं, तब भी ये महासत्वशाली उस पर किंचित् भी क्रोधित नहीं होते। वे सोचते हैं कि ये बेबारे कर्म-सन्निपात से अत्यन्त पीड़ित हैं, मिथ्यात्व उन्माद से संतप्त हैं, पाप रूपी विप से मूच्छित हैं, सदा दुःख के भार से दबे हुए हैं* और इनकी विशुद्ध धर्म चेतना नष्ट हो गई है। अतः परवश होकर यदि ये निन्दा, आक्रोश या मारपीट करें तो उन पर कौनसा विचक्षरण व्यक्ति क्रोध करेगा? करुणारसिक प्राणी दुःख पर डाम नहीं लगाते, घाव पर नमक नहीं लगाते/छिड़कते। [२७५-२८३] कर्म से प्रावत ये बेचारे प्राणी मात्र दया के पात्र ही नहीं, वरन् विवेकी प्राणियों को संसार से उद्वेग कराने वाले भी हैं। सन्निपात और उन्मादग्रस्त ऐसे पागल जीवों को संसार में भटकते हुए देखकर जिनेन्द्र कथित स्वरूप को समझने वाले व्यक्ति सोचते हैं कि मनुष्य जन्म प्राप्त करने पर भी ये बेचारे ऐसी स्थिति में पड़े हैं, यह तो बहुत ही बुरी बात है। यह दृश्य देखकर किस विचारशील को इस संसार-कारागृह पर प्रेम हो सकता है। [२८४-२८६] .पृष्ठ ६२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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