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प्रस्ताव ७: भव-मठ
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निवासी विद्यार्थियों की तरह यह मन्दबुद्धि प्राणी भी इनके शत्रुता पूर्ण दुष्ट स्वरूप को नहीं पहचानता। [२५६-२६६]
जिस प्रकार मठ निवासियों को भक्त परिवार ने मन्त्रित भोजन कराया, उसी प्रकार मोह राजा की आज्ञा से इस प्राणी की लोलुपता को बढ़ाने के लिये चित्र-विचित्र भोजन तैयार कराये जाते हैं। इस भोजन को महामोह स्वयं मन्त्रित करते हैं, जिससे वह ज्ञान को आवृत/आच्छादित कर देता है। इस खाद्य सामग्री को पूर्ववरिणत बन्धहेतु तैयार कर खिलाता है। मोह से अत्यन्त लोलुप जीव मठ निवासियों की भांति इस स्वादिष्ट भोजन को प्राप्त कर अपनी आत्मा को उससे ठंस-ठूस कर भर लेता है । उस समय प्राणी को उसके दारुण परिणामों का न तो ज्ञान होता है और न वह उस पर विचार ही करता है । इस कुभोजन के परिणामस्वरूप उसे जो अज्ञान होता है, उसी को अनभिग्रह मिथ्यात्व नामक सन्निपात कहा गया है । [२६७-२७०]
यह प्राणी महा अन्धकार रूपी मिथ्याज्ञानमय भाव-सन्निपात के प्रभाव से एकेन्द्रिय अवस्था में लकड़ी की भांति निश्चेष्ट पड़ा रहता है। बेइन्द्रिय की अवस्था में आवाज अव्यक्त होने से गर्र-गर्र करता सुनाई देता है । तेइन्द्रिय की अवस्था में भूमि पर इधर-उधर लोट-पोट होता रहता है। चार इन्द्रिय की अवस्था में झगझगारव करता हुआ फड़फड़ाता है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय की अवस्था में पीड़ित होता है। गर्भज पंचेन्द्रिय के आकार में भाग निकालता हुआ तड़फता है। अपर्याप्त अवस्था में अवरुद्ध गले वाला दिखाई देता है। नरक में अनेक प्रकार के दुःखों एवं तीव्र तापों से व्यथित जीभ पर कांटे हो गये हों, ऐसा लगता है। नरक में ही अधिक गर्मी और अधिक सर्दी से दु:खी होता है। पशु के रूप/आकार में कुछ सोच-विचार नहीं कर पाता। मनुष्य का जन्म प्राप्त कर बारम्बार अधिक मोहित होता है। देव अवस्था में महामोह की निद्रा में समय खो देता है और सभी अवस्थाओं में धर्म-चेतनाहीन होकर ही रह जाता है। *
हे सौम्य ! मिथ्या ज्ञान का अन्धकार रूपी भयंकर सन्निपात जीव को उसके कर्म-भोजन के परिणामस्वरूप ही होता है । [२७१]
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में वर्तमान अधिकतर प्राणियों को इस अकल्याणकारी भोजन के परिणामस्वरूप सर्वज्ञ-शासन के विपरीत अभिनिवेश हो जाता है। इस अभिनिवेश के वशीभूत होकर वे राग, द्वेष, मोह से कलुषित को परमात्मा मानते हैं, आत्मा को एकान्त नित्य, क्षणिक, सर्वगत, पंचभूतात्मक या श्यामाक धान अथवा तण्डुल जैसा मानते हैं, सृष्टिवाद को स्वीकार करते हैं और अन्य तत्त्वों को भी उलटा-सुलटा कर देते हैं। इसी को अभिगृहीत मिथ्यादर्शन रूपी कर्म-भोजन के सामर्थ्य से उत्पन्न उन्माद कहा जाता है। इस उन्माद से ग्रस्त
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