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________________ प्रस्ताव ७ : मदिरालय २२७ हे बहिन अगहीतसंकेता ! साधु महाराज की उक्त वार्ता सुनते हुए ही अकलंक के मन में उस सम्बन्ध में विचार-विमर्श चलने लगा जिससे उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । पूर्वभव में अभ्यास किये गये ज्ञान का स्मरण होने से उसे कथा का भावार्थ समझ में आ गया जिससे वह बहुत प्रमुदित हुआ और मुनि महाराज को वन्दना कर तीसरे मुनि की ओर जाने लगा। कथा का उपनय पहले की भांति ही मैंने (धनवाहन ने) अकलंक से कहा कि इस वार्ता का भावार्थ मैं नहीं समझ पाया हूँ, अतः स्पष्ट रीति से इसका रहस्य मुझे बतला दे। मेरी जिज्ञासा देखकर अकलंक बोला-भाई घनवाहन ! यह संसार ही मद्यशाला है। इस रूपक के द्वारा मुनि ने स्वयं को संसार से वैराग्य होने का कारण बतलाया है। तू इस उपनय को ध्यानपूर्वक सुन । यह संसार वस्तुतः मदिरालय के समान ही है, क्योंकि इसमें अनन्त घटनायें घटित हो चुकी हैं, हो रही हैं और होती रहेंगी। इसमें अनन्त जीव शराबी का चरित्र निभा रहे हैं। आठ प्रकार के कर्म और उनके भिन्न-भिन्न भेद अनेक प्रकार के मद्य हैं। इनमें से चार प्रकार के कषाय पासव हैं, नौ प्रकार के नोकषाय सिरके हैं, चार घाति कर्म मदिरा है, भिन्न-भिन्न गति के आयुष्य मदिरा के आधारभूत होने से चित्र-विचित्र मद्यपात्र (भाण्ड) हैं, प्राणियों के शरीर कर्मरूपी मद्य का उपयोग करने से मद्य पीने के पात्र हैं, इन्द्रियाँ शरीर को विभषित करने वाली होने से और अत्यन्त प्रासक्ति का कारण होने से उन्हें काले कमल की उपमा दी गई है। * कर्मरूपी मद्य से उन्मत्त लोट-पोट बने लोग नाचते, कूदते, हँसते रासविलास करते और विब्बोकादि अनेक प्रकार की चेष्टायें करते हैं उन्हें कलकल ध्वनि, उनके आपसी लड़ाई-झगड़ों को मृदंग, दुष्ट लोगों द्वारा उत्पन्न क्लेश को कांसे और दु:खी प्राणियों के मंद-मंद विलाप को वीणा की उपमा दी है। लोगों की शोकपूर्ण करुण चीत्कार को बांस (बांसुरी) की आवाज, आपद्ग्रस्त प्राणियों की चेष्टाओं को मुगन्द की आवाज, प्रिय वियोग की अवस्था में दीनता प्रकट करने वाले विलाप को करताल की आवाज कहा गया है । अत्यन्त अज्ञान के वशीभूत मूर्ख लोग बरातियों का अनुकरण करते हैं । ___ इसमें कमनीय आकार के धारक देवता पात्र का रूप धारण करते हैं और उनकी अप्सरायें गाढ मदोद्धत यूवती स्त्रियों का। यह मद्यशाला इतनी विशाल और लम्बी है कि इसके प्रवेश और अन्तिम छोर का कुछ पता ही नहीं लगता, अर्थात् यह अनादि अनन्त है ओर सर्वदा लोकाकाश में स्थित है। इसमें नाच, गायन, विलास, मद्यपान, भोजन, दान, अलंकार-ग्रहण, मान-अपमान आदि चित्रविचित्र भाव चलते ही रहते हैं, जो अज्ञानी प्राणियों के संसार-वर्धन और विवेकी प्राणियों के वैराग्य का कारण बनते हैं। * पृष्ठ ६२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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