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________________ २२६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा १३. हे सौम्य ! इस मद्य शाला के बाहर अनन्त लोग ऐसे भी हैं जो स्वयं महाबुद्धिशाली हैं और मदिरा सेवन से रहित हैं। वे इस अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित मद्यशाला से सदा के लिये दूर होकर बाधा-पीड़ाओं से रहित हो गये हैं और निरन्तर आनन्दोत्सव में मग्न रहते हैं । [१५३-१५४] हे भद्र ! इस मद्यशाला (लोक) में अनेक विभागों में से उपरोक्त मुख्य तेरह विभागों का स्वरूप संक्षेप में मैंने तुम्हें बताया । मैं स्वयं भी मदिरा के नशे में मत्त होकर उपरोक्त वणित पहले विभाग में अनन्त काल तक रहा। फिर किसी प्रकार क्रमश: दूसरे, तीसरे और चौथे विभाग में मदपूणित होकर उद्दाम लीला करता हुआ बहुत काल तक रहा । उपरोक्त तेरह में से प्रथम और अन्तिम के दो विभाग अर्थात् तीन विभागों को छोड़कर शेष दसों विभागों में मद्यपी की दशा में पापों के कारण मैं अनन्त बार भटकता रहा । [१५५-१६०] मदिरालय की भूमि जो वमन, पित्त, मूत्र, विष्टा, कफ आदि अपवित्र वस्तुओं से वीभत्स और दुर्गन्धित हो रही थी, उसमें मैं मद्यपी की दशा में लोटा, गुलाचें खायीं, घुटनों के बल चला, खड़ा हुआ, गिरा, नशे में चिल्लाया, कभी हंसा, नाचा, रोया, दौड़ा,* लोगों से लड़ा, बलवान लोगों से प्रतिक्षरण मार खाई और प्रहारों से शरीर जर्जर हो गया। इस प्रकार लाखों दुःखों से उत्पीड़ित/त्रस्त होकर भी मैं इस मद्यशाला में विचरता रहा । [१६१-१६४] एक बार इस मद्यशाला में स्थित मुझ पर किसी ब्राह्मण की दृष्टि पड़ी। उसको मुझ पर करुणा/दया आयी । उसने सोचा कि यह बेचारा स्वयं को शराब के व्यसन से अत्यन्त दु:ख का अनुभव कर रहा है, अतः किसी उपाय द्वारा इसका व्यसन छुड़वाना चाहिये जिससे यह भी हमारी तरह से सुखी हो सके। यह सोचकर ब्राह्मण ने मुझे प्रतिबोध देने का, समझाने का प्रयत्न किया। वह पुकार-पुकार कर मुझे सच्ची बात समझाने लगा किन्तु मदिरा के नशे में मत्त मैं उसकी बात को न सुनकर शून्य चेतन जैसा मद्यशाला के विभिन्न विभागों में भटकता रहा। जब ब्राह्मण जोर-जोर से चिल्लाने लगा तो मैंने थोड़ा सा हुंकारा दिया, तब उसने मुझे बुलाने का बहुत प्रयत्न किया। इस अवसर पर मदिरा का नशा कुछ कम होने से मेरी चेतना प्रकट होने लगी और मैंने उत्तर दिया । तत्पश्चात् उसने विस्तार से मदिरा के दोष बताये । मुझे भी उसकी बात पर विश्वास हुआ और मैंने मदिरापान के त्याग का निश्चय किया और मैं भी उसके जैसा ब्राह्मण बन गया। सभी ब्राह्मणों ने दीक्षित होकर साधु-वेष पहन रखा था अतः मैंने भी साधु-वेष धारण कर लिया। यद्यपि शराब से जो अजीर्ण मुझे हुआ था वह अभी तक नहीं मिटा है तदपि मुझे आशा है कि दीक्षा के प्रभाव से मैं अपने सारे अजीर्ण को समाप्त कर दूंगा। हे भद्र ! यही मेरे वैराग्य का कारण है। * पृष्ठ ६१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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