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________________ प्रस्ताव ७ : मदिरालय २२५ जाते हैं । वे आपस में भी छेदते, भेदते और काटते रहने के कारण तीव्र वेदना भोगते रहते हैं। [१३३-१३४] ६. यहाँ ऐसे असंख्य लोग हैं जिनके चित्त शराब की घेन में भ्रमित चित्त वाले हो गये हैं। कौनसा काम अकरणीय है, यह तो वे समझते ही नहीं। वे पशुपक्षी की प्राकृति को धारण करने वाले, मुह से चिल्लाने वाले, अपनी माँ के साथ भी संभोग करने वाले, धर्म-अधर्म को नहीं जानने वाले, कुछ भी कार्य करने वाले और अव्यक्त बोली बोलने वाले हैं। उनमें से कुछ नशे में जमीन पर लोटते हैं, कुछ आकाश में उड़ते हैं और कुछ पानी में डुबकी लगाते हैं। ये लोग परस्पर लड़ मरते हैं और अत्यन्त कठोर दुःख सहन करते हैं । सचमुच शराब समस्त आपत्तियों का कारण है । [१३५-१३६] १०. इस मद्यशाला में दो प्रकार के असंख्य मनुष्य हैं-मदमत्त बने हुए असंख्य और दूसरे संख्यात । जो नशे में मत्त हैं वे बेचारे भूमि पर लोटते हैं, वमन थूक, पित्त, विष्टा और मूत्र खाते-पीते हैं। हे भद्र ! दूसरी प्रकार के ये संख्यात मनुष्य नशे में मत्त होकर परस्पर लड़ते हैं, कूदते हैं, नाचते हैं, उच्च स्वर में हंसते हैं, गाते हैं, व्यर्थ का भाषण करते हैं, बेकार फिरते हैं, जमीन पर लोटते हैं और दौड़ा-दौड़ करते हैं । विलास के आनन्द-रस में मैल, कचरा, मांस, श्लेष्म आदि तुच्छ वस्तुओं से भरी हुई स्त्रियों के मुख और नेत्रों का चुम्बन करते हैं और विवेकी मनुष्य को लज्जा पाने योग्य विब्वोक आदि विचित्र आचरण करते हैं । माँ-बाप को भी मारने लगते हैं, चोरी आदि अनार्य कार्य करते हैं और कैसे भी भ्रष्ट कार्य हों उनमें तत्पर हो जाते हैं। परिणामस्वरूप राजपुरुषों द्वारा पकड़े जाते हैं, अनेक प्रकार की भयंकर तीव्र वेदना और मार सहन करते हैं। [१४०-१४६] ११. इस विभाग में असंख्य प्राणी ऐसे हैं जिन्हें चार उपविभागों में बांट दिया गया है । ये भी मदिरा के नशे में मस्त होकर कलबल-कलबल करते रहते हैं । यहाँ इनके सन्मुख अविरत रूप से बांसुरी और वीणा के मधुर स्वर होते रहते हैं, नाटक और खेल चलते रहते हैं, आनन्द-विलास और वादित्रों के मधुर स्वर चलते रहते हैं। इस धमाल में वे स्वयं भी नाचते, कूदते, हंसते, रोते और अपनी स्त्रियों के साथ अपनी आत्मा की अनेक प्रकार की विडम्बनायें करते रहते हैं। मदिरामत्त होने से वे एक-दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, शोक करते हैं, अभिमान से फूलते हैं, कभीकभी अकार्य भी कर बैठते हैं। ये चारों समुदाय वाले अपने आप को सुखी मानते हैं, पर वास्तव में वे दुःखी ही हैं। [१४७-१५०] १२. इस मदिरालय में संख्यात लोग ऐसे भी हैं जो मदिरा नहीं पीते और मध्यस्थ भाव से रहते हैं। मदिरा पीने वाले लोग प्रतिदिन इनकी हंसी उड़ाते हैं और असूया से इनको ब्राह्मण के नाम से बुलाते हैं। [१५१-१५२] * पृष्ठ ६१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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