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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मुनि महाराज ने मद्यशाला के जो तेरह प्रकार के प्राणियों के विभाग बताये हैं उन्हें विभिन्न अवस्थाओं के जीव समझना। इन विभागों का भावार्थ इस प्रकार है-१. असंव्यवहार वनस्पति, २. संव्यवहार वनस्पति, ३. पृथ्वी, पानी, वायु
और अग्नि के एकेन्द्रिय, ४. बेइन्द्रिय, ५. तेइन्द्रिय, ६. चौ इन्द्रिय, ७. असंज्ञी पंचेन्द्रिय, ८. नारकीय, ६. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, १०. संमच्छिम और गर्भज मनुष्य, ११. भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव, १२. ब्राह्मण के नाम से बतलाये गये इन्द्रियों पर संयम रखने वाले त्यागी वैरागी संयत मनुष्य और १३. संसार मद्यशाला से बाहर हुई मुक्त आत्माएं।
इन सभी प्राणियों की संख्या और इनके लक्षण भी साथ में बताये गये हैं। उनके सम्बन्ध में होने वाली चित्र-विचित्र घटनामों का भी संक्षेप में वर्णन किया गया है । इसमें मुनि महाराज ने स्वयं अपने आप को कर्म-मद्य का पान करने वाला बताया और किस-किस विभाग में कितना-कितना भटकना पड़ा, यह भी बतलाया। ये पहले असंव्यवहार जीव राशि में अनन्त काल तक रहे । वहाँ से अनन्त काल व्यतीत होने पर बड़ी कठिनाई से बाहर निकले और संव्यवहार वनस्पति जीव राशि में बहुत समय तक रहे । तदनन्तर दशों विभागों/स्थानों में बारंबार घूमते/भटकते रहे । इनको पहले असंव्यवहार विभाग में फिर से और अन्तिम दो ब्राह्मण एवं मुक्तात्माओं के विभाग में अभी तक प्रवेश नहीं मिल सका है। इन तीनों स्थानों के अतिरिक्त दस विभागों में इन्हें कैसी-कैसी तीव्र पीड़ायें सहन करनी पड़ी यह इन्होंने स्पष्ट किया ।
हे सौम्य ! मुनि महाराज ने इस वार्ता द्वारा हमें भी समझाया है कि यह संसार मद्यशाला जैसी है और आत्मा के दुःख का कारण है ।* अन्त में उन्होंने कहा कि 'मद्यशाला स्थित ब्राह्मणों ने उन्हें देखा और यत्नपूर्वक प्रतिबोधित किया' आदि की संघटना/योजना इस प्रकार घटित होती है। [१६५-१६६]
अनादि संसार में तथाप्रकार के स्वभाव के योग से कर्म की उत्कृष्ट स्थिति को भोग कर प्राणी मनुष्य भव में प्राता है और सुसाधु-महात्माओं के सम्पर्क में पाने पर नदी में घिसते पत्थर की तरह उसे द्रव्यश्र त (ऊपरी ज्ञान) की प्राप्ति होती है किन्तु कर्म-मदिरा के नशे में उसे सम्यक्त्व की तथा वास्तविक परमार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, जिससे वह सत्क्रिया का आचरण नहीं कर पाता और श्रेष्ठ साधुओं के सम्पर्क का लाभ नहीं उठा पाता। यही प्राणी की कर्म-मद्य-सेवन की तीव्र इच्छा है । हे सौम्य ! यही कामना अतिभयंकर और संसार-वर्धन का कारण है । इसके वशीभूत प्राणी बेभान होकर बार-बार परिभ्रमण करता है । जब काल आदि समस्त हेतु अनुकूल होते हैं तभी प्राणी अति दारुण कर्म की गाँठ को शुभ भाव से काटकर राधावेध की तरह अत्यन्त कठिनाई से प्राप्त होने वाले सददर्शन को प्राप्त करता है। सुसाधु-ब्राह्मणों द्वारा प्रतिबोध के लिए बुलाने पर जब
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