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________________ ३. मदिरालय घनवाहन के भव में संसारी जीव अपनी आत्मकथा को आगे बढ़ाते हुए अगृहीतसंकेता को उद्देश्य कर कह रहा है। दूसरे मुनि के पास पहुँच कर हम दोनों ने वन्दन किया, फिर अकलंक ने पूछा-भगवन् ! इतनी छोटी उम्र में आपके दीक्षा लेने का क्या कारण है ?. उत्तर में मुनि बोले--सौम्य ! सुनो, शराबियों के एक बड़े समूह को मद्य पीने में तत्पर देखकर मुझे वैराग्य हो गया। मेरे शरीर के सभी अंग मद्य के नशे में चूर हो गये थे और मैं एक बड़ा मद्यपी बन गया था। मुझ पर कृपा कर ब्राह्मण महात्मानों ने मुझे प्रतिबोधित किया, जिससे मुझे वैराग्य हो गया। [१११-११३] मदिरा और मदिरालय अकलंक-पूज्य ! इस मद्यशाला का विस्तृत वर्णन कर यह बताने की कृपा करें कि वे मद्यपी कैसा व्यवहार करते थे और वे ब्राह्मण कौन थे? मुनि--सुनिये, यह मद्यशाला अनेक घटित घटनाओं से युक्त और अनन्त लोगों से परिपूर्ण होने से इसका सम्यक प्रकार से वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? तदपि हे नरोत्तम ! मैं आपके समक्ष उसका संक्षेप में वर्णन करता हूँ। ध्यानपूर्वक सुने । [११४-११६] __ यह मद्यशाला अनेक प्रकार की सुवासित मदिरा से लोगों को सन्तुष्ट करती है। सुन्दर पात्रों में चित्र-विचित्र शराबें शोभायमान हैं। इसके चषक (मद्यपात्र)काले कमल के समान सुन्दर हैं। मदिरा और मद्यपान मद्यरसिकों के प्रमोदानुभूति का कारण है । [११७] ___इसमें रहने वाले सभी लोग मदिरा के नशे में धुत्त रहते हैं । वे नाचते-कूदते और हंसी-मजाक करते हुए प्रफुल्लित होते हैं । बाह्य दृष्टि से देदीप्यमान तूफानी लोग मुह से सीटियाँ बजाते हुए गीत गाते रहते हैं। परस्पर ताल देते हुए एक ही साथ सैकड़ों रास करते रहते हैं। [११८] यह मद्यशाला सुन्दर आकृति वाले अनेक प्रौढ़ प्राणियों से भरी है। इसमें प्रगाढ मद से उन्मत्त एवं उद्धत अनेक स्त्रियाँ भी सम्मिलित हैं। यह शाला इतनी लम्बी है कि इसका प्रारम्भ कहाँ से हुआ और अन्त कहाँ पर है ? कुछ पता नहीं लगता । यह लोकाकाश नामक भूमि में स्थित है। [११६] इसमें करोड़ों मृदंग और कांसे बजते रहते हैं वीणा के नाद से इसके आनन्द में वृद्धि होती रहती है । बांस (बांसुरी) आदि वाद्ययन्त्रों की ध्वनि से युवा बराती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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