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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
इन्होंने सत्य को समझा और प्रबुद्ध होकर सर्वज्ञ के तीर्थ-मण्डल में प्रविष्ट हुए । तत्पश्चात् इन्होंने देखा कि संसारोदरवर्ती सभी लोग राग-द्वेष रूपी अग्नि से अत्यन्त विह्वल होकर जल रहे हैं और अशुद्ध अध्यवसाय रूपी पवन इस अग्नि को और अधिक बढ़ा रहा है। ग्रामीणों के समान अज्ञानी जैसे-जैसे अधिक रोते-चिल्लाते हैं, वैसे-वैसे तीर्थ-मण्डल में सुरक्षित मुनियों के आँखों के सामने यह धधकती अग्नि उन्हें अधिक जलाती है। [६०-६८]
अन्त में मुनि ने कहा कि मण्डल के भीतर रहने वाले कुछ लोगों ने दीक्षा ग्रहण की और उनके साथ मैंने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। हे भद्र घनवाहन ! मुनि के इस वाक्य में भी वक्रोक्ति है । मैंने पूछा-कुमार ! इस समस्त घटना में वक्रोक्ति कैसे है ? अकलंक ने कहा--तीर्थ मण्डल में चार प्रकार के लोग होते हैं-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । इस वाक्य का अर्थ यह है कि तीर्थमण्डल में रहने वाले सभी लोग दीक्षा नहीं ले पाते, कुछेक ही दीक्षा लेते हैं, उन्हीं में से एक ये मुनि भी हैं । हे भद्र ! सारी कथा में वक्रोक्ति से मुनि ने संसाराग्नि को वैराग्य का कारण बताया है । यह कथा बहुत चमत्कारपूर्ण होने से उसे सुनकर मेरा चित्त अत्यन्त हर्षित हुआ । हे भद्र ! मैंने यह भी सोचा है कि मुनि महाराज ने जो बात कही है वह पूर्ण सत्य है । निरन्तर जलता हुआ यह संसार सज्जनों के लिये तो वैराग्य का कारणभूत ही होता है। यह भी सत्य है कि मूर्ख जड़बुद्धि लोग अपनी आत्मा को इस संसाराग्नि में जलाते हैं, जबकि उनमें से कुछ बुद्धिशाली लोग उससे बाहर निकल जाते हैं । इन मुनि महाराज ने हम दोनों को प्रतिबोधित करने के लिये ही लोकोदर में आग लगने की कथा को अपने वैराग्य का कारण बताया है।
[१६-१०५] मुझे लगता है कि वे ऐसा कह रहे हैं—'अरे भाइयों ! इस प्रदीप्त आग से जल रहे संसार में तुम दोनों भी जल रहे हो। तुम्हारे जैसे विवेकीजनों को तो तीर्थ-मण्डल में प्रविष्ट हो जाना चाहिये। जो भाग्यवान प्राणी भावपूर्वक हमारे इस तीर्थ-मण्डल में प्रवेश करते हैं, उन्हें राग-द्वेष की यह अग्नि कभी जला नहीं सकती।' ये मुनि-श्रेष्ठ इस कथा द्वारा हमें भी यह उपदेश सुना रहे हैं, ऐसा मुझे स्पष्ट लग रहा है । भाई धनवाहन ! मुनिसत्तम के ये उत्तम विचार मुझे तो बहुत ही प्रिय लगते हैं, तुम्हें रुचिकर हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता। [१०६-१०८]
हे भद्रे ! अकलंक की उपरोक्त बात सुनकर * मैं तो चुप ही रहा। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि मेरा मन अभी तक पाप से भरा हुआ था, पापपूर्ण संसार में ही आसक्त था।
वहाँ से हम मन्दिर के बाहर ज्ञान-ध्यान में रत दूसरे मुनि के पास पहुंचे और उन्हें वन्दन किया।
[१०६-११०]
- omso
* पृष्ठ ६१६
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