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________________ प्रस्ताव ७ : लोकोदर में प्राग २२१ अन्धकार को रात्रि समझो । राग-द्वेष रूपी अग्नि से यह नगर निरन्तर जलता ही रहता है । तामसभाव/कषाय परिणति से धूए के बादल छाये रहते हैं। राजसभाव रूपी आग के शोले भभकते रहते हैं। संसार के क्लेश को बांस फूटने की आवाज समझो । राग-द्वेष रूपी अग्नि से उत्तप्त होकर लोग जाग उठते हैं और कोलाहल करते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषाय बालक दारुण क्रन्दन करते हैं। कृष्ण, नील, कपोत अशुद्ध लेश्या रूपी स्त्रियां हांफती हुई दौड़ने लगती हैं। संसार में रागाग्नि से तप्त मूर्ख प्राणी अंधों की तरह चिल्लाते हैं। वस्तुस्थिति को जानकर भी उस पर आचरण नहीं करने वाले पंगु उच्च स्वर से रोते हैं। नास्तिक हंसोड़ों की तरह व्यर्थ की धमाचौकड़ी करते हैं । इन्द्रिय रूपी चोर धर्म-सर्वस्व की चोरी करते हैं । राग रूप अग्नि से आत्मगृह की अच्छी-अच्छी वस्तुएं जलने लगती हैं । कुछ लोग चिल्लाते हैं, 'क्या करें ?' इस भयंकर आग को बुझाने में हम असमर्थ हैं, इसे कंजूसों का विलाप समझो। भाई ! साधु ने इस संसार में लगी हुई भीषण आग का वर्णन किया और उसके द्वारा फैल रही अव्यवस्था को चित्रित किया। लोग परस्पर एक-दूसरे को नहीं बचा सकते, इसीलिये संसार रूपी नगर को अनाथ कहागया । यहाँ मंत्रवादी को विशुद्ध परमेश्वर सर्वज्ञ महाराज समझो, जिन्होंने उठकर गोचन्द्रक आकार के मध्यलोक में प्रात्मकवच धारण कर सूत्र के मन्त्रों से रेखायें-खींचकर तीर्थ-मण्डल की स्थापना की और धर्मोपदेश के आकर्षण से लोगों को अपने मण्डल में बुलाया। तीर्थंकर/मन्त्रवादी की धर्मदेशना ग्राह्वान से उत्साहित होकर कुछ भाग्यशाली पुरुष उनके तीर्थमण्डल में प्रविष्ट हुए पर उनकी संख्या अत्यल्प थी; क्योंकि संसार के जीवों की संख्या की अपेक्षा से वे उसके अनन्तवें भाग जितने ही थे। जो सर्वज्ञ के तीर्थ में मंत्रवादी के मण्डल में गये वे संसाराग्नि दावानल से बच गये। [७४-८६] अन्य महामूर्ख लोग राग-द्वेष रूपी अग्नि से जल रहे इस संसार को विषयों से शांत करने का प्रयत्न करने लगे। जो स्त्री-पुत्रादि पर आसक्ति रखकर, धन एकत्रित करते हुए पाँचों इन्द्रियों को खुली छोड़ कर इस संसाराग्नि को बुझाने का प्रयत्न करते हैं, वे तो उसमें घास के पूले और लकड़ी के गट्ठर डालकर उसको बढ़ाते ही रहते हैं। जो लोग बार-बार कपट, लोभ, अभिमान, क्रोध आदि से इस अग्नि को शांत करने का प्रयत्न करते हैं, वे इसमें घी के घड़े डाल कर उसे बढ़ाने का काम ही करते हैं।* तीर्थ-मण्डल के अन्दर प्रविष्ट लोग बार-बार उन्हें समझाते हैं कि घास, लकड़ी और घी डालने से अग्नि बुझेगी नहीं, वह तो और अधिक भड़केगी, पर वे नहीं समझते । बार-बार बताने पर भी कि संसाराग्नि तो प्रशम जल के छिड़काव से ही शांत होगी, वे उसका उपयोग नहीं करते और न सत्तीर्थ रूपी मण्डल में ही प्रविष्ट होते हैं । संसाराग्नि को बुझाने की बात सुनकर उस पर आचरण करना तो दूर रहा, प्रत्युत वे ऐसा उपदेश देने वालों की हंसी उड़ाते हैं। इन मुनि-महात्माओं की भांति कोई सा व्यक्ति ही वस्तुस्थिति को समझ पाता है। * पृष्ठ ६१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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