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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सम्पूर्ण नगर तथा जन-समूह को जलाने वाली इस आग को देखकर एक बुद्धिमान मंत्रवादी बाहर आया। नगर के बीच गोचन्द्रक (एक ऊंचे चबूतरे) पर खड़े होकर उसने पहले स्वयं कवच धारण किया, फिर चारों तरफ मंत्रित रेखा खींचकर चबूतरे के मध्य में एक विशाल मण्डल बना लिया, फिर उच्च स्वर में नगर के लोगों को बुलाने लगा-'भाईयों ! आप सब इस मन्त्रित मण्डल में आ जाइये, यहाँ आपके शरीर और वस्तुएं नही जलेंगी।' उसकी आवाज सुनकर कुछ लोग उस मन्त्रित मण्डल में चले गये।
अन्य लोग पागल, शराबी, हृदय-शून्य, प्रात्मशत्रु और ग्रह-ग्रसित की तरह अपने शरीर और सर्वस्व को जलते हुए देखकर भी मूों की भांति आग में घास, लकड़ियां और घी से भरे हुए घड़े डालकर आग को बझाने का प्रयत्न करने लगे। इस विचित्र परिस्थिति को देखकर मण्डल में प्रविष्ट लोगों में से कुछ ने कहा--'अरे भोले लोगों ! यह आग को बुझाने का उपाय नहीं है। या तो जल डालकर अग्नि को शांत करो या मंत्रवादी द्वारा मन्त्रित मण्डल में चले पायो, जिससे हमारी भांति तुम भी आग से बच सकोगे।' परन्तु लोगों ने उनकी बात को अनसुना कर दिया। कुछ ने सुनकर भी लापरवाही की, कुछ तो हंसी उड़ाने लगे
और उलटा उपदेश देने लगे तथा कुछ तो क्रोधित होकर मारने भी दौड़े। यह देखकर मण्डल के लोग चुप हो गये । कोई-कोई समझदार पुण्यशाली प्राणी मण्डल में प्रविष्ट भी होते रहे।
कुमारों ! मेरी तथाविध भवितव्यता होने से मुझे मण्डल में रहे हए लोगों की बात रुचिकर प्रतीत हुई अत: मैं कूदकर मण्डल में चला गया। मण्डल में प्रविष्ट होकर मैंने देखा कि पवन के वेग से आग बढ़ रही है और नगर के सभी लोग रोतेचिल्लाते और चीखें मारते हुए आग में जल रहे हैं। तदनन्तर मण्डल में रहने वाले कई लोगों ने दीक्षा ग्रहण की, उस समय मैं भी उनके साथ प्रवजित हो गया। हे भद्र ! यही मेरे वैराग्य का कारण है।
उपनय
मुनि की बात सुनकर अकलंक अत्यन्त प्रसन्न हया और दूसरे मुनि के पास जाने के लिये उठ खड़ा हुआ । मैं तो इस कथा का कुछ भी भावार्थ नहीं समझ सका, अतः मैंने अकलंक से पूछा
__कुमार ! मुनि ने वैराग्य का जो कारण बतलाया उसे सुनकर तुम्हें तो अत्यधिक प्रसन्नता हुई, किन्तु मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं पाया, अतः तुम मुझे इसका भावार्थ ठीक से समझायो। [७३]
अकलंक बोला-भाई ! मुनि ने जिसे लोकोदर ग्राम कहा है उसे इस संसार को समझो * और इस संसार में वह रहता है ऐसा समझो । महामोह के
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