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पं. नाथूराम प्रेमीने यह सुझाव दिया था कि ये भास्करनन्दि श्रवणवेळगोळ शिलालेख सं. ५५ में उल्लिखित जिनचन्द्र ( सम्भवतः सिद्धान्तसारके रचयिता ) के शिष्य हो सकते हैं। उन्होंने एकाध जगह एक दूसरे जिनचन्द्रका भी उल्लेख किया है, जिनके गुरु शुभ वन्द्र थे । ऐसा लगता है कि शायद इसीसे पं. कटारियाको शुभगतिके लिए शुभयति पाठका सुझाव देने में कुंजी मिल गयी। ___ जब हम अर्थ में झाँकते हैं, तब शुभयति संन्यास के ठीक अन्तमें ही प्रत्याशित है, उसके बाद कोई भी मान्य साधु हो सकता है, सबके द्वारा समादरणीय । यह पाठ श्लोकके सन्दर्भ में बिलकुल समीचीन उतर अहै । और यदि शुभयति शुभचन्द्र के लिए ठीक हो सकता है, तो यह (६९त रूपसे भट्टारक जिनचन्द्रकी परम्पराके प्रश्नको स्पष्ट कर देता है, १३णे इसका प्रमाण मेधावी द्वारा तिलोयपण्णत्तिके 'दानप्रशस्ति' से और दूसरे शिलालेखीय साधनोंसे भली प्रकार अनुमोदित हो। इन जिनचन्द्रको मैंने ७वें क्रमांकमें ( भूमिकाका पृष्ठ २९) किसी एकके साथ परिगणित किया है। तब, पं. कटारियाके विचारके अनुसार, भास्करनन्दिका सम्बन्ध सम्भवतः राजस्थानमें, १६वीं शताब्दीमें कहीं बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, मूलसंघसे है। फिर भी, हस्तलिखितमें कोई प्रमाण अभीतक सामने नहीं लाया गया है कि उनका प्रस्तावित पाठ शुभयति शुभचन्द्र के लिए ठीक बैठता है। और जैसा कि मैंने भूमिकामें कहा है, भास्करनन्दि और हेमचन्द्र के बीच, धर्म्यध्यानके अन-आगमिक विभागों जैसे कि पिण्डस्थके अनुरूप, एक निश्चित अन्तराल है, ये विभाग अत्यन्त सन्दिग्ध अभिव्यक्ति के साथ ध्यानके सभी आगमिक विभागोंके सम्प्रकाशनके बाद परिचित कराये गये हैं, "उक्तमेव पुनर्देव सर्वं ध्यानं चतुर्विधम्" (श्लोक २४ ) “यह पंक्ति हम तभी समझ सकते हैं, जब हम यह जान लें कि अमितगतिने ध्यानका कैसे वर्गीकरण किया, जिनका भास्करनन्दिने अनुसरण किया । क्या भास्करनन्दिको हेमचन्द्रका पूर्ववर्ती होना चाहिए,
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