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________________ ३९ यह आशा करना हमारे लिए असम्भव है कि उन्होंने चार स्थोंको ऐसे ढंगसे प्रस्तुत किया, जिसको चर्चा भूमिकामें की गयी है, और ऐसे सन्दर्भ में, क्योंकि वे एक ऐसे ग्रन्थकार हैं जो अपने विचारकी संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूपसे विशद व्याख्या कर सकते हैं जैसा कि उनकी तत्त्वार्थवृत्तिसे प्रमाणित है। और मुझे उनको 'वृत्ति में कोई उल्लेख भी ऐसा नहीं मिला, जिसे भास्करनन्दिने १३वीं शताब्दीके बादके दूसरे ग्रन्थकारोंसे लिया हो। यही कारण है कि मैंने क्रमांक सं. ७ को ग्रन्थकारकी परम्पराको प्रमाणित करनेके लिए और विचारणीय नहीं समझा। पं. कटारियाका यह सुझाव कि 'शुभगति' को 'शुभयति' स्वीकार किया जाये, बहुत प्रेरणाप्रद है, यद्यपि मेरे लिए यह बहुत समाधानकारक नहीं है कि उपरोक्त दिये गये कारणके लिए मैं उन्हें शुभचन्द्र स्वीकार करूँ । फिर भी, यह बेहतर है कि भास्करनन्दिका काल तबतक मुक्त रखा जाये, जबतक कि हमें ज्यादा निष्कर्षात्मक प्रमाण न मिल जायें। . संयोगवश, भास्करनन्दिका नाम कुछ शिलालेखीय स्रोतोंमें प्राप्त होता है । एक हुन्गुन्द बम्बई, १०७४ ई. के शिलालेखमें मिलता है, जो भास्करनन्दिको मूलसंघ, सूरस्थगण और चित्रकूट अन्वय (पी. बी. देसाई, शोलापुर, १९५७, पृष्ठ १०७-८ द्वारा 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया' और 'सम जैन एपिग्राफ्स' ) में पण्डित कहता है। दूसरा लक्ष्मेश्वर ( मैसूर ) में १०७७-७८ के एक निषिधिलेखमें पाया गया है, जो भास्करनन्दि पण्डितदेवके ( 'जैन शिलालेख संग्रह' भाग ४, जोहरापुरकर द्वारा सम्पादित १९६५ पृष्ठ ११३ के ) समाधिमरणको सूचना देता है। ___अन्त में, मैं यहाँ उन चार स्थोंको और जोड़ना चाहूँगी, जिन्हें योगीन्दुने अपने योगसार ९७में निरूपित किया है। यह कहता है कि एक बुद्धिमान् मनुष्य, जो जिन द्वारा उपदिष्ट पिण्डस्थ, पदस्थ और इसी प्रकार रूपस्थ और रूपातीतका सम्मान करता है, इनके द्वारा बड़ी सुगमतासे आत्माकी उच्चतम और पवित्र अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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