________________
अनुलेख
मैंने स्वयं यह शंका की थी कि सर्वसाधु अंकित नाम नहीं हो सकता, और पर्याप्त प्रतिपत्तियोंके साथ यह संकेत दिया था कि यह चतुर्मुख उर्फ वृषभनन्दिके लिए हो सकता है, जो नाम बड़ी कुशलतापूर्वक स्वयं ग्रन्थकार द्वारा मेरे द्वारा निर्दिष्ट ( भूमिका, पृष्ठ ३३ ) उन्हीके एक श्लोकमें छिपा लिगा गया है। और जिनचन्द्र वृषभनन्दि ( पृष्ठ ३२ का वंशानुक्रम ) के शि थे, और हमारे भास्करनन्दि जिनचन्द्रके शिष्य हैं, जिन्हें बादमें भः हा गया होगा। डॉ. उपाध्येने मेरा ध्यान भास्करनन्दि के बारेमें ए , बरणी ( महावीर जयन्ती स्मारिका, जयपुर १९७२, भाग २, पु कि :-२२ में ) की तरफ आकर्षित किया, जो स्वर्गीय पं. मिलापचन्द्रजटारिया द्वारा प्रस्तुत की गयी थी । पं. कटारिया भी इस बातमें मेरे साथ सहमत हैं कि सर्वसाधु अंकित नाम नहीं हो सकता । श्लोक ९९ की अन्तिम पंक्तिका प्रसंग देते हुए, पं. कटारिया 'शुभगति' को 'शुभयति' पढ़नेकी सलाह देते हैं। और इस शुभयतिको शुभचन्द्रसे मिलाते हुए, वे कविताका निम्नलिखित पाठ करते हैं : "शुभचन्द्र मुनि ( वस्त्र पहने हुए भट्टारक ), पर्यंक आसनपर विद्यमान, संन्यासके अन्तमें सर्वसाधु ( नग्न दिगम्बर यती ) हो गये, उनकी पूजा की जानी चाहिए।" वे इन शुभचन्द्रको पद्मनन्दिके शिष्यसे जोड़ते हैं, जो १४५०-१५०७ वि. सं. ( १३९२-१४९९ ई.) के मध्य जीवित रहे । शुभचन्द्र जयपुर में भट्टारकके आसनपर विद्यमान थे, जिसपर फिर सिद्धान्तसारके रचयिता जिनचन्द्र आसीन हुए, जिनका काल १५०७-१५७१ वि. सं. (१४४६-१५१३ ई.) है। श्रावकाचारके रचयिता मेधावी, जिनचन्द्रके शिष्य हैं, और पण्डितजीकी यह राय है कि भास्करनन्दि भी उनके ही शिष्य थे, जिनका काल १६०० वि. सं. में कहीं पड़ सकता है । यहाँपर भी दर्शनीय है कि वर्षों पहले ( सिद्धान्तसारादिसंग्रह, बम्बई, १९२१, भूमिका, पृष्ठ ७ ) स्वर्गीय
[३]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org