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अर्थात् १९१० या ११२० में हुए । इस प्रकार, किसी तरह उनकी जीवनचरितात्मक सामग्री के बारेमें यह निश्चित है कि भास्करनन्दि मूलसंघ के देशीगण, वक्रगच्छ में दिगम्बर पण्डित थे, जो दक्षिणमें कहीं, सम्भवतः श्रवणबेळगोळके आसपास, जिनचन्द्र के शिष्यके रूपमें १२वीं शताब्दी के आरम्भ में सम्भावित रूपसे विद्यमान थे । इस समय उनका व्यक्तिगत जीवन पूर्णतया चित्रित नहीं हो सकता ।
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कुछ विद्वान् भास्करनन्दिकी परम्परा और समयको प्रमाणित करने का प्रयत्न कर चुके हैं, यहाँ संक्षेप में उसका परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है । पं. शान्तिराज शास्त्री 'तत्त्वार्थवृत्ति' ( पृष्ठ ४७-८ ) की अपनी भूमिका में भास्करनन्दिके कालको श्रवणबेळगोळ शिलालेख सं. ५५ (६९)में जिनचन्द्र से ठीक पहले उल्लिखित माघनन्दिके समय के आधारपर १३वीं शताब्दी के अन्त ( १४वीं शताब्दी के आरम्भ ) में प्रस्तावित करते हैं । वे माघनन्दिके कालको १२५० ई. स्वीकार करते हैं । यह स्तम्भ लेख ११०० ई. में निर्मित हुआ, इसलिए उनके सुझावको स्वीकार करना कठिन है । नाथूराम प्रेमीजी 'जैन साहित्य और इतिहास' ( पृष्ठ ३७८-९ ) में और जुगलकिशोर मुख्तारजी 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह', (वा. १, पृष्ठ ३५-६ ) में अनेक सम्भाव्य जिनचन्द्रोंका, पं. शान्तिराज शास्त्री द्वारा उद्धृत जिनचन्द्रसहित, संकेत करते हैं, उनके दृष्टिकोणको शास्त्रीजी द्वारा समर्थन भी मिला है । पं. के. भुजबली शास्त्री अपने 'प्रशस्तिसंग्रह', (पृष्ठ १७८ ) में कहते हैं कि भास्करनन्दिका नाम नन्दिसंघ में सौख्यनन्दिके शिष्य देवनन्दिके शिष्यके रूप में न्यायकुमुद्रचन्द्रकी 'वृत्ति' में भी सामने आता है। इन पूर्ववर्ती विद्वानों के विचारोंने, खासतौर से शान्तिराज शास्त्रीके दृष्टिकोणने इस छोटे से अध्ययनमें मेरा निर्देश किया है, इसके लिए मैं अपना विनम्र आभार प्रकट करना चाहूँगी ।
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