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________________ उसी स्तम्भके उत्तरी भागमें, जिनचन्द्रको पण्डितदेव कहा गया है। इस शिलालेखमें, ज्येष्ठ चतुर्मुखदेव, गोपनन्दि, माघनन्दि और अन्य कई नवयुवा साधु भाइयोंके सहित, अनेक आचार्योंकी गणना हुई है । ये सबके सब वक्रगच्छ, मूलसंघके देशीय गणसे सम्बन्धित देवेन्द्रके, जो सिद्धान्तदेवके रूपमें भी प्रसिद्ध हैं, समकालीन शिष्य कहे गये हैं । इस शिलालेखमें, जिनचन्द्रको कहीं भी भट्टारक नहीं कहा गया है। फिर भी, इस स्तम्भके शिलालेख और तत्त्वार्थवृत्तिको अन्तिम पुष्पिकाके विवरणसे यह निश्चित है कि ये वर्णन एक ही व्यक्तिके बारेमें हैं। दोनों वर्णनोंमें, जिनचन्द्रकी शारीरिक मूर्ति उदात्त प्रकट होती है । 'वृत्ति'को पुष्पिकामें जनताके चन्द्रमाके रूपमें उनकी सुन्दर कल्पना प्रस्तुत की गयी है। वे एक बहुत सुन्दर साधु होने चाहिए, जो अपने नामको अनेक अर्थों में प्रत्यक्ष रूपसे सार्थक करते हैं। यह स्तम्भ लेख, जो बड़े प्रकट रूपसे शिलालेख सं. ४९२ के उन्हीं प्रदाताओं द्वारा लिखा गया है, अपने रूपवान् योगीकी प्रशंसाके मनमोहक शब्दोंसे भरा हुआ है । महासैद्धान्त अथवा पण्डितदेवके रूपमें उनका उल्लेख किया गया है, एक ऐसे विद्वान्, पूज्यपाद और अकलंकसे जिनकी तुलना हो सकती है। वे एक सर्वज्ञ अथवा योगीश्वरके रूपमें वर्णित हुए हैं, और वे निश्चित रूपसे लोगों द्वारा पूजित और प्रशंसित हुए हैं। साधारण मनुष्यकी अभिव्यक्ति साधु व्यक्तिसे निश्चय ही भिन्न होती है, फिर भी, ये तीसरे जिनचन्द्र हमारे भास्करनन्दिके गुरुके साथ निस्सन्दिग्ध रूपसे एक हैं। और इस स्थितिमें, यह सहज स्वीकार्य लगता है कि हमारे ग्रन्थकारने तत्त्वार्थसूत्रपर टीका और श्लोकोंमें ध्यानस्तवकी रचना की। हळेबेलगोळका शिलालेख सं. ४९२ कहता है कि होयसळ राजा त्रिभुवनमल्ल एरेगंगने राचनहळ्ळ गाँव गोपनन्दिको बेळगोळके मन्दिरकी मरम्मतके लिए शक सं. १०१५ (१०९३ ई. ) में दानमें दिया, जो चतुर्मुखके शिष्य थे। देशीगण वक्रगच्छकी परम्परा जैन शिलालेख संग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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