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हुआ है :
१) पिण्डस्थकी संकल्पना परिवर्तित हो गयी है और चार स्थोंके क्रमका पुनर्विन्यास किया गया है, जिसे परवर्ती ग्रन्थकारोंने स्वीकार किया है। वे अनुष्ठानके एकके बाद एक चरणके रूपमें, जो कि उच्चतर धरातलकी ओर ले जाता है, व्यवस्थित किये गये हैं, उदाहरण के तौरपर, स्थूल आधारसे अमूर्त आधार तक । .
२) अरूपस्थको रूपातीत अथवा रूपवजितके नाम भी दिये गये हैं, जिन्हें परवतियोंने भी स्वीकार किया है ।
३) पिण्डस्थका परवर्ती ग्रन्थोंमें सविस्तार वर्णित पाँच उपविभागोंके साथ संगठित रूपमें किंचित् भी वर्णन नहीं किया गया है । तथापि उनकी प्राथमिक संकल्पना इसमें पहचानी जा सकती है। दूसरे स्थोंकी यहाँपर अपरिष्कृत रूपमें इतने सादे और अकृत्रिम ढंगसे व्याख्या हुई है, जो कि परवर्ती विकासकी तरफ उनकी परिवर्तनशील प्रक्रियाका संकेत करती है।
इस ऐतिहासिक सन्दर्भके प्रसंगमें, हम अपने 'ध्यानस्तव'पर कुछ टिप्पणियोंको जोड़ सकते हैं। भास्करनन्दिका कहना है कि ध्यान पुनः चार स्थोंमें पूर्णतया विभक्त हुआ है । यद्यपि उन्होंने स्पष्ट रूपसे नहीं कहा, फिर भी यह प्रकट है कि यह विभाजन ध्यानमें ध्येयपर पूर्णरूपेण आधारित है । उन्होंने अमितगतिकी भाँति ही ध्यानको दो श्रेणियों, आगमिक और अन-आगमिकमें स्वीकार किया है। आगमिक श्रेणी ध्यानका पारम्परिक विभाजन है, और अन-आगमिक ध्यानमें ध्येयके अन्तर्गत नया प्रकार । सर्वार्थसिद्धि आदिकी भाँति ही, जो इस विषयमें मौन हैं, दूसरा प्रकार उनकी वृत्ति में नहीं पाया जाता । व्याकरणदृष्टिसे हमारे श्लोक २४ की व्याख्या करना तक सम्भव है कि ध्यानके सभी प्रकार, जैसे अपने उपविभागों के साथ आर्त आदि हर एक इन चार स्थोंके द्वारा पुनः अन्तविभक्त किये गये हैं । तो भी, ऐतिहासिक सन्दर्भ में यह जरा भी युक्तिसंगत नहीं है कि इसे यान्त्रिक सम्मिश्रणके अर्थ में ग्रहण किया जाये,
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