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________________ मन्त्र-पाठके स्वीकारसे शुरू होकर, ध्यानके शास्त्रीय आधारोंके रूपमें इन स्थोंका नियोजन जैन योगपर महत्त्वपूर्ण हिन्दू-प्रभावका संकेत करता है । इसने निश्चित रूपसे दक्षिणी मध्यकालीन जैन मण्डलको अनुप्राणित किया है, और जैनमतकी भूमिको समृद्ध बनाया है । यहाँ तक कि ध्यानके आगमिक वर्गीकरणके सन्दर्भ में भी, इसके निरपेक्ष वर्तन में काफी व्यापक दृष्टिकोण अपनाया गया है। एक उदाहरण के लिए, चामुण्डराय अपने 'चरित्रसार'के 'अनगारधर्मे तपोवर्णनम्' विभागमें धर्म्य-ध्यानको दस प्रकारोंमें प्रविभाजित करते हैं : अपाय, उपाय, जीव, अजीव, विपाक, विराग, भव, संस्थान, आज्ञा और हेतुविचय । जैनधर्मके अभ्यासियोंके लिए यह निश्चित रूपसे एक ऐसा मनोहारी काल है, जो अत्यन्त समृद्ध आकरसामग्रीसे परिपूर्ण है और जिसका बड़ी सावधानीके साथ अध्ययन किया जाना चाहिए। अब, जैन ध्यानके वर्गीकरणका विचार करनेवाले मध्यकालीन ग्रन्थोंसे, हम इसके संकल्पनात्मक विकासकी प्रक्रियाको चित्रित करने में समर्थ हो सकते हैं । ध्यानकी पुरातन श्रेणी आर्त जैसे चार विभागोंके साथ आगमों में दी हुई है । चार स्थों द्वारा इसकी श्रेणी व्युत्पादित है। व्युत्पन्न श्रेणी सामान्यतया पुनः व्याख्यायित, पुनः विभाजित, और प्रथम श्रेणीमें घुल गयी है, अगर यह जीवित रहनेमें सचमुच ही समर्थ है । इसकी प्रक्रिया कुंछ निश्चित सोपान ले सकती है, जैसे दूसरे वस्तु-विषयकी संकल्पनाका उद्भव, इसका नामकरण और परिभाषाका संस्थापन, मूल आकारमें इसकी संविभागात्मक प्रक्रिया और समन्वय । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीतको मूलधारणा अमितगतिके समयसे पहले ही प्रतिष्ठित हो चुकी थी। उनके 'श्रावकाचार' में चारों स्थ पाये जाते हैं । ध्यानके चार स्वरूपोंमें-से एकके अन्तर्गत उनका वर्गीकरण किया गया है, जो कि आगमिक अभ्याससे अलग प्रयुक्त हुए हैं । भास्करनन्दिके 'ध्यानस्तव' में कुछ महत्त्वपूर्ण विषयोंपर विचार [२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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