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________________ १८ समयावधिमें भावनाओंके सन्दर्भ में अनेक प्रकारसे परिलक्षित किया गया है। ...भास्करनन्दि अपने श्लोक २४ में कहते हैं कि ध्यान पुनः चार प्रकारोंमें निर्दिष्ट किया जाता है, वे हैं, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपवर्जित ( अथवा रूपातीत )। पूज्यपाद और अकलंक इन प्रकारोंके बारेमें मौन हैं । और न तो भास्करनन्दि ही उनका अपनी 'वृत्ति में उल्लेख करते हैं। डॉ. आ. ने. उपाध्येने मेरा ध्यान अभिनवगुप्तके तन्त्रालोक (१०-२४१ आदि ) की तरफ आकर्षित किया है, जहाँ पिण्डस्थ आदिका वर्णन है : यह प्रश्न आगे भी विचारणीय है । जिनभद्रने 'ध्यानशतक' श्लोक ७१ में शुक्लध्यानके विभागमें मन्त्रयोगके बारेमें कहा है। डॉ. ताटियाके 'स्टडीज इन जैन फिलासफी' (पृष्ठ २९३-६ ) के अनुसार हरिभद्रसूरिके लिए यह कहा गया है कि, उन्होंने अपने 'योगविशिका' में योगको पाँच क्रियाओंमें विभक्त किया है, वे हैं, स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन । हमारे संदर्भ में आलम्बन और अनालम्बन, जो कि योग प्रणालीमें संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधिके तुल्य हैं, क्रमशः रूपस्थ और रूपवजित कहे गये हैं । सोमदेव अपने 'यशस्तिलक में लोकोत्तर और लौकिकमें अन्तर बताते हैं, जिनमें हमारे पदस्थ और रूपस्थ संकेतित हैं । नेमिचन्द्र इन पारिभाषिक शब्दोंका उपयोग नहीं करते । । जो भी हो, उनका 'द्रव्यसंग्रह' ४९, जो मन्त्रपाठका उद्घोष करता है, हमारे पदस्थको उपलक्षित करता है; इसका पद्य ५० रूपस्थका संकेत करता है, और पद्य ५१ रूपातीतका। हमें अमितगतिके 'श्रावकाचार' अध्याय १५में ध्यानको क्रमबद्ध व्याख्या मिलती है। वे ध्यानका विभाजन पारम्परिक (वे हैं, आर्त आदि) और अपारम्परिक श्रेणियोंमें करते हैं। पहला १५:९-२३ में लिया गया है। दूसरा चार पहलुओंके आधारपर स्वतन्त्र रूपसे चचित हुआ है, ये 'पहलू हैं, ध्याता, ध्येय, ध्यान और फल । ध्यानके मुख्य विषयके अन्तर्गत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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