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________________ चार स्थोंको पदस्थ (१५ : ३१-४९), पिण्डस्थ (१५ : ५०:५३), रूपस्थ (.१५ : ५४ ), और अरूपस्थ (१५ : ५५-५६ ) के क्रममें निर्देशित किया गया है। पदस्थके बारेमें, मन्त्रपाठ और यन्त्रोंकी विधि विस्तारसे वर्णन की गयी है, जो हमारे 'ध्यानस्तव' श्लोक २९ में, संक्षेपमें प्रस्तुत हुई है । अमितगतिके अनुसार पिण्डस्थका अर्थ है, अर्हत् अथवा जिनेन्द्रपर, जिन्होंने तथाकथित जीवन्मुक्त अवस्थाको प्राप्त कर लिया है, मानसिक क्रियाओंको एकाग्र करना। रूपस्थ ध्यानको विचार अभीप्सुकी शुद्ध मानसिक क्रियाओंके सन्दर्भ में किया गया है, जो परमेष्ठियों ( वे हैं, अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ) के गुणोंपर ध्यान करने में हैं, जो उनकी मूर्तियों अथवा प्रतिमाओंपर आरोपित किये जाते हैं। वे सिद्धके आध्यात्मिक गुणोंको अरूपस्थ ध्यानके विषयके रूपमें मानते हैं, जिसे भास्करनन्दिने भी इसी तरहसे स्वीकार किया है । हमारे 'ध्यानस्तव' में पिण्डस्थका आधार वैश्विक विस्तारसे युक्त मूर्तिमान् प्रभुके रूपमें ग्रहण किया गया है, जो कि अभीप्सुके .अपनी आत्माके साथ एकाकार रूपसे स्वीकार करना चाहिए, और रूपस्थका आधार मूर्तिमान् भगवान् अर्हत्के आध्यात्मिक गुणों तक ही सीमित है। इस प्रकार अमितगतिसे लेकर भास्करनन्दि तक, खासतोरसे पिण्डस्थमें संकल्पनात्मक विकासका एक सुनिश्चित संकेत है, जो कि सहज ही इसके क्रमके परिवर्तन द्वारा परिणमित हुआ है, वह है, पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । 'योगशास्त्र' अध्याय ७ ध्यानको इन समान पहलुओंमें ही ग्रहण करता है, वे हैं, ध्याता, ध्येय, [ ध्यान ] और इसके फल । ध्यानके विषयके अन्तर्गत, ध्यान चार शीर्षकों में पुनः विभक्त किया गया है, वे हैं, पिण्डस्थ ( अ. ७), पदस्थ (अ. ८), रूपस्थ ( अ. ९) और रूपवर्जित ( अ, १०)। दसवें अध्यायमें, रूपवजितके वर्णनके तुरन्त बाद, धर्मध्यान ध्यानके विषय शीर्षकके अन्तर्गत पुनः पारम्परिक चार विभागों में विभक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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