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॥ कल्याणकलिका.
स्वं ० २ ।।
।। ५७ ।।
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अर्थ- 'चैत्यवन्दन करवुं ने स्तुतिओ बोलवी १, सौभाग्यादि मुद्राओ पूर्वक, मंत्रन्यास करवो २, जिनोनुं आह्वान करवुं ३, दिग्बन्ध करबो ४, नेत्रोन्मीलन करवुं ५ अने देशना आपवी ६ आ छ कार्यो करवानो अधिकार आ कल्पमां गुरुनो मान्यो छे.'
आजना घणाक प्रतिष्ठागुरुओमां उक्त कार्यो करवानी आवडत न होवाना कारणे आमांना केटलांक कामो विधिकार गृहस्थी करीनो कार्य चलावे छे, आवां कारणोथी आजना विधिकारो प्रतिष्ठामां पोताने प्रधान कार्यवाहक मानी ले छे. एटलुं ज नहि पण प्रतिष्ठानी सामग्री तरीके शीशी वस्तुओ केटकेटला प्रमाणमां जोइशे, तेनी सूचीओ पण विधिकारो ज लखी आपे अथवा तेमनी सलाहथी लखाय त्यारे ज काम चाले अन्यथा चालता कामे प्रतिष्ठा करावनारने बजारमां दोडवुं पडे.
आपणे जोइ आव्या छीये के पूर्वकालमा दिक्पालोना पाटला उपर वस्त्राच्छादन न हतुं अने ग्रहोनो तो पाटलो ज न हतो, ए बधुं धीरे धीरे अस्तित्वमां आव्युं छे, छतां आजे प्रत्येक दिक्पाल अने ग्रहने माटे वर्णानुसारे रंगवालां वस्त्रो होय तो ज विधिमा काम आवे अने विधि थइ शके छे नहि तो गाडुं अटकी पडे छे. हुं इच्छं छं के आवी चालती प्रवृत्तिओने ज विधिनुं सर्वस्व मानी बेठेला विधिकारो पूर्वकालीन अने आधुनिक विधिविधानोमां पडी गयेला आकाश अने पाताल जेवडा अंतरनो विचार करशे तो जरूर तेओ पोतानी दृष्टिने विकसावी शकशे.
आजथी लगभग ४ दायका उपर ग्रहो दिक्पालोनुं पूजन घणी ज सादी रीते करातुं हतुं, पण श्रीरत्नशेखरसूरिजीने नामे चढेल “जलयात्रादि विधि” पुस्तक छपाइने बहार पड्या पछी धीरे धीरे तेमां छापेल विधि अनुष्ठाननी प्रवृत्ति थवा मांडी, विशेषे करीने बिंबप्रवेश विधिमां ग्रह- दिक्पालोनुं पूजन ए ग्रन्थना आधारे थवा मांड्यं एमां आपेल क्रम प्रमाणे शांतिस्नात्र के अष्टोत्तरीमां 'वरकणयसंखविदुम' आ गाथाने प्रथम राखवानी केटलाक विधिकारोए प्रवृत्ति पाडी, विस्तृतपणे ग्रह - दिक्- पालोनुं पूजन पण चालु कर्यु, पाछलथी बहार
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॥ प्रस्ता
वना ॥
।। ५७ ।।
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