________________
केला
॥ कल्याण
|| प्रस्तावना ॥
कलिका. खं० २ ॥
बहन
॥ ४४ ॥
Saa
करावाती अने जिनबिंब तैयार थतुं के दश दिवसनी अंदर ज तेनी प्रतिष्ठा थइने जिनचैत्य साधिष्ठान थइ जतुं, समवाय के गृहस्थ व्यक्ति कोइ एक शासनपति तीर्थंकर विशेषनी प्रतिष्ठा करावतो त्यारे आसपासना गामोमां पण भाग्ये ज तेनी खबर पहोंचती, पण ते क्षेत्रना
| उत्सर्पिण्यादि भावी चोवीसे तीर्थंकरोनी प्रतिष्ठा थती त्यारे कंइक विशेष आकर्षक थती अने संधसमुदाय एकत्र थतो अने ज्यारे भरतादि पंदर क्षेत्रना सर्वतीर्थंकरोनी अर्थात् १७० जिननी प्रतिष्ठा थती त्यारे सर्वोत्कृष्ट आकर्षण अने सर्वाधिक संघ समवाय एकत्र थतो हतो आ विषयमा बहुश्रुत आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि कहे छे
"निष्पन्नस्यैव खलु, जिनबिंबस्योदिता प्रतिष्ठाशु । दशदिवसाभ्यानतरतः, सा च त्रिविधा समासेन व्यक्त्याख्या खल्वेका, क्षेत्राख्या चापरा महाख्या च । यस्तीर्थकृद्यदा किल, तस्य तदाद्येति समयविदः ॥ ऋषभाद्यानां तु तथा, सर्वेषामेव मध्यमा ज्ञेया । सप्तत्यधिकशतस्य तु, चरमेह महाप्रतिष्ठेति ॥" ।
आ पद्योनो भावार्थ प्रथमना विवेचनमां कहेवाइ गयो छे. आ त्रणेय प्रकारनी प्रतिष्ठाओ अनुक्रमे १ व्यक्ति प्रतिष्ठा २ क्षेत्रप्रतिष्ठा अने ३ महाप्रतिष्ठा आ नामोथी ओलखाती हती, १ व्यक्ति प्रतिष्ठ कनिष्ठा २ क्षेत्र प्रतिष्ठा मध्यमा अने ३ महाप्रतिष्ठा उत्कृष्टा कहेवाती | a हती, आ कनिष्ठादि संज्ञाओ विधिआश्रित नहिं पण प्रतिमाओनी संख्याने अनुसारे गणाती हती, वर्तमान कालीन प्रतिष्ठाओमां प्रतिमाओने लइने नहिं पण उत्सवनी, जनसंख्यानी तथा उपजनी दृष्टिए प्रतिष्टाओ कनिष्ठ उत्कृष्ट मनाय छे जे यथार्थ नथी.
प्रतिष्ठाओने अंगे लोककल्पनाओवर्तमान कालीन मानस एवं बनी गयुं छे के प्रतिष्ठा थया पछी प्रतिष्ठाकारक व्यक्ति अथवा संघनी वा गामनी उन्नती के अवनति जणाय तो ए प्रतिष्ठाना फलरूपे ज गणाय छे पण ए मान्यता यथार्थ नथी, खरी वात तो ए छे के प्रतिष्ठा कार्यना प्रारंभमां थता |
Sia
08
sel॥४४॥
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org