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________________ ॥ कल्याण कलिका, सं० २ ।। 11 82 11 Jain Education International मौलिकता जळवाइ रही छे. आ विधि घणी ज सुगम सुखसाध्य अने अल्पव्यय साध्य छे एज एनी मौलिकतामां प्रमाण छे, ते समये आने भणावनार अने प्रचारक साधुओ त्यागी होवाना कारणे आनी सामग्रीमां स्वार्थने लइने अनुचित वृद्धि कराई नथी, पण कालान्तरे आमां ते विकृति पेसी गइ जे आजे छे. १६३९ अने १८८७ नी बच्चेना २४८ वर्षोमां सामग्रीमां के गतपदार्थोंना परिमाणमां बहु वधारो थयो नथी, अष्टमंगलनी पाटली, १२ पाटला, केलांक वस्त्रो अने केटलांक बीजां सामान्य उपकरणोमां वृद्धि थइ छे अने विधिमा पण केटलोक वधारो थयो छे, प्राचीन विधिने अनुसारे पूर्वे अष्टोत्तर स्नात्र थया पछी प्रतिमाओने शुद्ध जले पखाली अंगलूंछी पूजीने नैवेयादिक धरी आठ थोये देवचंदन करातुं अने ते पछी लघुस्नात्र भणावीने आरती कराती हती, ओगणीशमा सैकानी लखेली स्नात्र विधिओमां स्नात्रना अभिषेको थया पछी प्रतिमाओ साफ करी पूजीने चैत्यवन्दन कर्या पछी स्नात्र भणावी नैवेद्य ढोकवानुं अने बीजीवार देववन्दन करवानुं विधान दाखल थयुं, ए उपरांत बीजो पण साधारण विधिगत फेरफार थयो, छतांये खर्चनी दृष्टिए आमां बहु परिवर्तन थयुं नथी. सं० १८८७ पछी आज सुधीना १२५ वर्षोमां आ पूजामां केटलांये परिवर्तनो थइ गयां, अष्टमंगलनी पाटलीनो पाटलो थयो, वस्त्रोमां यथेच्छ वृद्धि थइ, रूपैया नामथी पूर्वे मात्र बे चोखंडा रूपीया हता तेने बदले आजे रोकडा रूपैया वधीने १५० सुधीनी हदे पहोंच्या प्रति अभिषेके १ रोकडो रूपैयो मूकाय तो ज स्नात्र पूजा सारी थइ गणाय. ग्रह- दिक्पाल - अष्टमंगलना पाटलाओ उपर रूपानाणुं मूकवानुं चालु थयुं, वा थवा लाग्युं, अट्ठाहि उत्सव स्नात्रने अंगे अनिवार्य थयो. For Private & Personal Use Only ॥ प्रस्ता वना ॥ ॥। ४१ ।। www.jainelibrary.org
SR No.001723
Book TitleKalyan Kalika Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1986
Total Pages660
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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