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॥ कल्याणकलिका.
खं० २ ।।
॥ ३९ ॥
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कशो संदेह नथी. ‘बिंबप्रवेशविधि' कारनी आवी भूल जाण्या पछी अमारी श्रद्धा ए पुस्तक उपरथी उठी गइ अने निर्णय कर्यो के आवा अनधिकारीने हाथे रचायेल आ संदर्भ करतां ते नवी विधि तैयार करवी वधु उपयोगी थइ पडशे अने विधिकारोने आवी भूलोखी बचावशे. (४) अष्टोत्तरी - स्नात्रविधि
बिंबप्रवेशविधि उपरांत श्री कांतिसागरे अष्टोत्तरी स्नात्रविधि उपर पण पोतानी कृति तरीकेनी महोर छाप मारी छे जे तेना निम्नोक्त मंगलाचरणना श्लोक उपरथी जाणी शकाय छे
" प्रणम्य पार्श्वपादाब्जं, ज्ञानकान्तिप्रदायिनम् । वक्ष्ये शताष्टभेदेन विधिना स्नात्रमुत्तमम् ||१|| "
अष्टोत्तरीना उपर्युक्त श्लोकमां श्री कान्तिसागर एवा ढंगधी बोले छे के जाणे पोते कोइ नवी कृतिनी रचना करता होय, वास्तवमां श्रीकातिसागरे प्राचीन अष्टोत्तरी स्नात्रविधिमा अनावश्यक वस्तुओनो बधारो अने निरुपयोगी प्रकरणोने उमेरो करवा उपरांत नवुं कंड नथी आ हकीकत आगल उपर स्पष्ट थशे अष्टोत्तरीनी प्रशस्तिमां श्रीकांतिसागर रचनासमय, पोताना गुरु तथा गच्छपति श्रीपूज्य आचार्यनो आ प्रमाणे परिचय आपे छे
“संवद् युगेन्दुनागेन्दु (१८१४) प्रमिते माधवोज्ज्वले । पक्षे हि कविपञ्चम्यां दर्भावत्यां पुरि स्थितः ||१|| पुण्यानुबन्धिपुण्याढ्य-पुण्यादिसिन्धुसूरीणाम् । राज्ये प्राज्ञसुज्ञानादि सागराणां हि शिष्यकः ||२||
तेनेदं (नायं) मन्दमतिना, समुच्चितोऽष्टोत्तरीस्नात्रविधिमार्गः । ज्ञात्वा गुरुतोऽत्र ययदशुद्धं शोध्यं हि बुद्धिवरैः ।।३।। बिंबप्रवेशविधिमां पण एज त्रण पद्यो प्रशस्तिरूपे लखेल छे, मात्र तृतीय पद्यना तृतीयचरणमां "समुच्चितो जिनप्रवेश विधिमार्गः। " ए पाठान्तर करेल छे, बने निबंन्धोना मंगलाचरणमां निबंधकारे " ज्ञान - कान्ति” शब्दोनो उल्लेख करी गुरु तथा पोताना नाम
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॥ प्रस्ता
वना ॥
।। ३९ ।।
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