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॥ कल्याणकलिका. खं० २ ॥
॥ प्रस्ताबना ॥
उपर आपेल समाप्तिलेखनी अशुद्धिओ अने प्रशस्तिनो अभाव जोतां ए ग्रन्थ सकलचन्द्रजीनी कृति होवा विषे ज अमने ते शंका छे. छतां प्रचलित प्रणालिकाने अनुसरीने एने श्रीसकलचंद्रजीनी कृति मानी लइये तोये आ वर्तमानरूपमां ते उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रजीनी कृति न ज होइ शके. कारण के आमां केटलीक अक्षम्य भूलो नजरे पडे छे अने एना केटलाक विषयो अस्तव्यस्त थइ गयेला जणाय छे, उदाहरणो- ..
(१) बधा प्रतिष्ठाकल्पोमां पांचभु स्नात्र (अभिषेक) पंचगव्यनु आवे छे ज्यारे आमां पंचगव्यने नवमा नम्बरे मूक्युं छे, अने तेनां | उपादानोमां पण परिवर्तन करी नाख्युं छे, बधा कल्पकारो गायनुं छाण, मूत्र, दूध, दहि अने घृत आ पांचने 'पंचगव्य' तरीके जणावे छे त्यारे आ कल्पमा दूध, दहि, माखण, घृत अने छाश ए पांचनुं समुदित नाम 'पंचगव्य' आप्यु छे, जे वास्तविक नथी, माखण ने घी तेमज दहि अने छास ए वस्तुओ कंइ भिन्न भिन्न नथी पण एक ज चीजना अवस्थापरक बे भिन्न नामो छे, अने आ रीते खरं जोतां 'पंचगव्य' ना नामथी 'त्रिगव्य' ज बने छे अने 'त्रिगव्य' नो ज अभिषेक थाय छे, ज्यारे प्रत्येक प्रतिष्ठाकल्पकारे 'पंचगव्य'नो अभिषेक करवानुं विधान कर्यु छे.
(२) पंचगन्यने आगेने माटे राखी आ कल्पमां पांचमा स्नात्र तरीके 'सदौषधि'नो अभिषेक राख्यो छे अने छठ्ठो 'मुलिका' ना स्नात्रने सदंतर ज काढी नाखी तेना स्थाने 'प्रथमाष्टकवर्ग' नुं स्नात्र गोठव्युं छे, छतां नवाइ तो ए छे के मूलिकास्नात्र वखते बोलातुं पद्य ज आ स्नात्रना पाठरूपे पहेला आप्यु छे अने पछी न, पद्य आप्यु छे, बीजा पद्यमां पण 'प्रथमाष्टकवर्ग' मा आवता 'वीरणिमूल' ने स्थाने 'हीरवणीमूल' शब्द लखीने खरे ज अर्थनो अनर्थ कर्यो छे !.
(३) आठमो अभिषेक सर्व प्रतिष्ठाकल्पोमा 'प्रथमाष्टकवर्ग' नो छे ज्यारे एमां ते 'सौषधि' नो लखेल छे, अने एना पाठमां
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