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॥ कल्याणकलिका.
॥ प्रस्ताबना ॥
स्वरूप आ कल्पोमां गुरु अने श्रावके करवानां कार्यो बहेंचाइ गयां छे. आ बे कल्पो तपागच्छनी निरवद्य सामाचारीने अनुरूप बनावी देवामां आव्या छे. छतां विधिविधानोमा महत्वनो भेद पाड्यो नथी ए खुशी थवा जेबुं छे.
नंबर ७ ना प्रतिष्ठाकल्पनो आधार ग्रन्थ श्री जिनप्रभसूरिजीनी प्रतिष्ठापद्धति छे, एम छतांये आ कल्पकारे केटलीक बातो खुलासापूर्वक लखी छे के जे प्रमाणे एना आधारग्रंथमा नथी,ए कल्पना लेखके पण केटलीक सावद्य प्रवृत्तिओ प्रतिष्ठाचार्यने बदले स्नात्रकार श्रावकना हाथे करवानुं विधान कयुं छे, छतां आमांना केटलाक विधानो नं० ५।६ नां विधानोथी भिन्न छे.
नंबर ८ नो प्रतिष्ठाकल्प जे उपाध्याय श्री सकलचंद्रजीनी कृति गणाय छे, एनो आधार एना कर्ताए ग्रन्थनी समाप्तिमां नीचे प्रमाणे सूचव्यो छे.
"इति श्रीभद्रबाहुस्वामिना विद्याप्रवादपूर्वात् प्रतिष्ठाकल्पोद्धृतः । तन्मध्याजगञ्चन्द्रसूरीश्वरेण यत्प्रतिष्ठाकल्पोद्धृतः तत एप प्रतिष्ठाकल्पः सुविहितवाचक श्री सकलचन्द्रगणिना भट्टारक श्री हरिभद्रसूरिकृत प्रतिष्ठाकल्प-हेमाचार्यकृतप्रतिष्ठाकल्प-श्यामाचार्यकृतप्रतिष्ठाकल्प -श्री गुणरत्नाकरसूरिकृतप्रतिष्ठाल्प एभिः प्रतिष्ठाकल्पैः सह संयोजितः संशोधितश्च भ । श्रीविजयदानसूरीश्वराने ।” ___उक्त समाप्तिलेखनो तात्पर्यार्थ ए छे के 'श्रीभद्रबाहुस्वामीए विद्याप्रवादपूर्वमाथी प्रतिष्ठाकल्प उद्धर्यो, तेमांथी श्रीजगच्चनद्रसूरीश्वरजीए प्रतिष्ठाकल्पनो उद्धार को अने तेमाथी आ प्रतिष्ठाकल्प सुविहित उपाध्याय श्री सकलचन्द्रजी गणिए बनावीने पूज्य श्रीहरिभद्रसूरि-हेमाचार्यश्यामाचार्य-गुणरत्नाकरसूरिकृत प्रतिष्ठाकल्पोनी साथे मेलवीने श्रीविजयदानसूरिजीनी सामे सुधार्यो छे.' __ प्रस्तुत प्रतिष्ठाकल्प उपाध्याय श्रीसकलचन्द्रजीनी ज कृति छे अथवा तो कोइए एमना नामे चढावी दीधेली होइ अर्वाचीन कूट कृति छे ए शंका खरेखर समाधान मांगे छे.
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