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॥ कल्याणकलिका. खं० २॥
॥ प्रस्तावना ॥
छे अने स्थाने स्थाने तेनी गाथाओनां अवतरणो आपीने पोतानी आ पद्धतिने समृद्ध अने प्रामाणिक बनावी छे.
नं. २ नो प्रतिष्ठाकल्प पण संभवित रीते कोइ प्राचीन प्राकृत प्रतिष्ठाकल्पने ज आधारे बन्यो छे, छतां आमां कोइ पण गाथाओ प्रमाण तरीके आपी नथी, वली एमणे मंत्रभाग पण घणो ज संक्षिप्त रूपे आप्यो छे. एम लागे छे के निर्वाणकलिकाने सीधो नहि पण तेना आधारे बनेली कोइ प्राचीन पद्धतिनो आधार लइने श्रीचन्द्रसूरिजीए पोतानी आ प्रतिष्ठा पद्धति बनावी हशे.
नं. ३ नो प्रतिष्ठा-कल्प नं० २ वाला प्रतिष्ठा-कल्पने आधारे ज बन्यो छे, बनेनी प्रतिष्ठा विषयक मान्यता समान छे, मात्र कचित् नजीवो फेरफार छे के जेनुं कारण मात्र समयभिन्नता अने कर्तृभिन्नता ज होइ शके.
४ था प्रतिष्ठाकल्पनो आधार शो छे ते एना कर्ता ज नीचेना शब्दोमां लखी दे छे"प्रतिष्ठाविधिरादिष्टः, पूर्वं श्रीचन्द्रसूरिभिः । संक्षिप्तो विस्तरेणाय -मागमार्थाद्वितन्यते ॥१॥" "प्रतिष्ठाकारयितुर्गुहे प्रथमं शान्तिकं पौष्टिकं कुर्यात् । अतश्च श्रीचन्द्रसूरिखणीता प्रतिष्ठायुक्तिर्महाप्रतिष्ठाकल्पापेक्षया लधुतरेति ज्ञायते। ततः आर्यनन्दिक्षपक-चन्द्रनन्दि-इन्द्रनन्दि-श्रीवज्रस्वामिप्रोक्तप्रतिष्ठाकल्प-दर्शनात् सविस्तरा लिख्यते " ।
अर्थ- 'पूर्वे श्रीचन्द्रसूरिजाए संक्षिप्त प्रतिष्ठाविधि कही छे, ज्यारे आ आगमानुसारे सविस्तर रचाय छे. कारण के प्रतिष्ठाकारक गृहस्थना घरे प्रतिष्ठा करतां पहेलां शांतिक अने पौष्टिक करवू जोइये, पण श्रीचन्द्रसूरिरचित प्रतिष्ठापद्धति 'महाप्रतिष्ठाकल्पो' नी अपेक्षाए घणी ज नानी छे, तेथी आर्यनन्दिक्षपक, चन्द्रनन्दी इन्द्रनन्दि अने श्रीवज्रस्वामिकथित प्रतिष्ठाकल्पो देखीने आ सविस्तर (प्रतिष्ठापद्धति) लखाय छे.'
उपरना वाक्योमा श्रीवर्धमानसूरिजीए जेमनो नामनिर्देश कर्यो छे ते आर्यनन्दिक्षपक अने चन्द्रनन्दीनां नामो आपणी परंपराने मलतां
या
ब
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