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________________ ४. तित्थयराणं (तीर्थकरेभ्यः ) ( ल० ) - एवमादिकरा अपि कैवल्यावाप्त्यनन्तरापवर्गवादिभिरागमधामिकैरतीर्थकरा एवेष्यन्ते 'अकृत्स्नकर्म्मक्षये कैवल्याभावाद्' इतिवचनात् । तन्निरासेनैषां तीर्थकरत्वप्रतिपादनायाह 'तीर्थकरेभ्यः' इति । ( पं० ) - 'आगमधाम्मिकै 'रिति = आगमप्रधाना धामिका आगमधामिका वेदवादिनस्तैः । ते हि धर्माधर्म्मादिकेऽतीन्द्रियार्थे आगममेव प्रमाणं प्रतिपद्यन्ते, न प्रत्यक्षादिकमपि, यदाहुस्ते “अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते । वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥ १ ॥” इति तत्संबन्धयोग्य स्वभाव नहीं है, वहां तत्संबन्ध नहीं बन सकता अर्थात् आत्मा में कर्माणु आदि के साथ संबन्ध होने योग्य स्वभाव के विना कर्माणु आदि के साथ संबन्ध निष्पन्न नहीं हो सकता हैं। फलतः उन संबन्ध पर निर्भर मादिसङ्गत नहीं हो सकता। और यदि वह सङ्गत करने के लिए आत्मा में संबन्धयोग्य स्वभाव मान लेंगे, . तो वही कर्तृत्व-शक्ति रूप होने से हम से स्वीकृत आत्म-कर्तृत्व का ही आपने स्वीकार कर लिया । स्वभाववाद : पंचकारणवाद : प्र० - आत्मादि का ऐसा स्वभाव मानने पर तो शुद्ध स्वभाववाद ही सिद्ध होगा न ? स्वभाव वादीने कहा भी है कि 'कांटो को तीक्ष्ण बनाने को कौन जाता है ? एवं मृग और पक्षियों को चित्रविचित्र बनाने के लिए कौन प्रयत्न करता है ? कोई नहीं, ये सब स्वभावतः उत्पन्न होते हैं; यहां जब किसी की इच्छा काम नहीं आती कि ऐसा ही सर्जन हो, तब प्रयत्न की तो बात ही क्या ? - अर्थात् स्वभाव मात्र से ही कार्य बनता है यह सिद्ध होगा न ? उ०- नहीं, कार्योत्पत्ति के लिए सामग्री में स्वभाव के अलावा काल वगेरे और भी कारण अपेक्षित हैं । १ काल २ स्वभाव - ३ नियति - ४ भाग्य - ५ पुरुषार्थ ये पांचो स्वरूप सामग्री हैं, पांचो संयुक्त हो कर ही अपने कार्यजनन के प्रति निमित्तभूत होती है। शायद आप पूछ सकते है, प्रo - तब पहले आत्मामें कर्तृत्व के स्वभाव मात्र को कारण सिद्ध करने का यत्न क्यों किया गया ? उ०- हम कहते हैं कि स्वभाव भी सामग्री में अन्तर्भूत होकर ही कार्य के प्रति कारण होता है, सामग्री कारण कैसे हो सकती है, यह बात हमने 'उपदेशपद' आदि गन्थों में सिद्ध की है। इस प्रकार आदिकरत्व की सिद्धि हुई । अब तीर्थकरत्वकी सिद्धि बतलाते हैं। ४. तित्थयराणं तीर्थकर नहीं मानने वालों का पूर्वपक्ष: धार्मिक अर्थात् आगमको प्रधान करने वाले वेदवादी लोग परमात्मा को इस प्रकार आदिकर मानते हुए भी तीर्थकर नहीं मानते हैं। क्यों कि वे कैवल्य-प्राप्ति के अनन्तर तुरन्त मोक्ष मानते हैं। 'अकृत्स्नकर्मक्षये कैवल्याभावात्,' यह उनका सूत्र है; जिसका अर्थ है समस्त कर्मों के क्षय विना कैवल्य होता नहीं है। कैवल्यकी प्राप्ति के पूर्व तो स्वयं अपूर्ण होने से तीर्थस्थापन कैसे करे ? और कैवल्य प्राप्ति के बाद मोक्ष ही हो जाने से तीर्थस्थापन का अवसर ही रहता नहीं है। इसलिए वे तीर्थकर नहीं हैं। तब प्रश्न हो सकता है कि - प्र०-धर्म-अधर्म अर्थात् शुभाशुभ भाग्य जो अतीन्द्रिय पदार्थ हैं, चर्मचक्षु से दृश्य नहीं हैं, उन की व्यवस्थामें क्या प्रमाण हैं ? Jain Education International ६८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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