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________________ (द्विविधः सामर्थ्य-योग :-) (ल.)-द्विधाऽयं धर्मसंन्यास - योगसंन्याससंज्ञितः । क्षायोपशमिका धर्माः, योगाः कायादिकर्म तु ॥ ७ ॥ (पं०) - सामर्थ्ययोगभेदाभिधानायाऽऽह 'द्विधा' = द्विप्रकारो, अयं = सामर्थ्ययोगः, कथमित्याह 'धर्मसंन्यासयोगसंन्यास-संज्ञितः', - 'संन्यासो' = निवृत्तिरुपरम इत्येकोऽर्थः । ततो धर्मसंन्याससंज्ञा सञ्जातास्येति धर्मसंन्याससंज्ञितः 'तारकादिभ्य इतच्' (पा०५-२-३६) । एवं योगसंन्याससंज्ञा सञ्जातास्येति योगसंन्याससंज्ञितः । क एते धर्माः ? के वा योगाः ? इत्याह ‘क्षायोपशमिका धाः' = क्षयोपशमनिर्वृत्ताः क्षान्त्यादयो । 'योगा: कायादि कर्म तु' = योगाः पुनः कायादिव्यापाराः कायोत्सर्गकरणादयः । एवमेव द्विधा सामर्थ्ययोग इति ॥ ७ ॥ सामर्थ्ययोग के दो प्रकार होते हैं । (१) धर्म-संन्यास, एवम् (२) योग-संन्यास । 'संन्यास' शब्दका अर्थ है, निवृत्ति। निवृत्ति कहे उपरम कहो, या त्याग कहो, अर्थ एक ही है। १. धर्मका संन्यास, एवम् २. योग का संन्यास। धर्मसंन्यासका नाम याने संज्ञा है जिसकी, वह योग 'धर्मसंन्यास-संज्ञित' योग कहलाता है। पाणिनीय व्याकरणके ५-२-३६ सूत्रानुसार संज्ञा शब्दसे 'इतच्' नामक प्रत्यय लगनेसे 'संज्ञित' शब्द बना । इसी प्रकार योगसंन्यास संज्ञा है जिसकी, ऐसा योग 'योगसंन्यास-संज्ञित' कहलाता है। प्र०- धर्मका त्याग एवम् योगका त्याग, इनमें 'धर्म' और 'योग' शब्दोंसे क्या विवक्षित है? उ०- 'धर्म' शब्दसे कर्मक्षयोपशमके द्वारा निष्पन्न क्षमा आदि धर्म गृहीत है, और 'योग' शब्द से कायादि क्रिया ली जाती है। कायादि क्रियामें कायोत्सर्ग वगैरह धर्म-व्यापार आते है। इसी तरह दो प्रकारके सामर्थ्ययोग होते हैं। क्षायोपशमिक एवं क्षायिक धर्म - प्र० - 'क्षयोपशम' किसे कहते है ? और इससे निष्पन्न धर्म कौन, एवं उनका त्याग किस प्रकार? उ०- जैन शास्त्र कहते हैं कि धर्म यह क्षमा-निरहंकार;...... अहिंसा-सत्य;....., तप-चारित्र..... इत्यादि रूप है। वे क्षमा आदि आत्माके स्वरूप हैं; लेकिन वे क्रोध मोहनीय, मान मोहनीय, इत्यादि कर्म-आवरणोंसे आवृत याने छिप गये हैं। उन आवरणों का अगर अंशतः भी क्षमादिपोषक शुभ भावना, मनोनिग्रह इत्यादि सत्पुरुषार्थ से नाश किया जाए, तो आत्मामें क्षमादि धर्म प्रगट होते हैं। कर्मोका यह अंशतः नाश क्षयोपशपम कहलाता है। उसके द्वारा निष्पन्न धर्मोको 'क्षायोपशमिक धर्म' कहते हैं । वे यों प्रगट होते हुए भी, संभव है सत्तागत अवशिष्ट कर्मोके पुनः उदयसे वे स्वयं ढक जाएँ । इसीलिए यह आवश्यक है कि उन कर्मोका आमूलचूल नाश करके वे धर्म रूपमें परिवर्तित किये जाएँ। प्र०-- 'क्षायिक' शब्दका क्या अर्थ है ? उ० – कर्म-आवरणों का मूलतः नाश अर्थात् क्षय करने पूर्वक प्रगट होते धर्म 'क्षायिक धर्म' कहलाते हैं। वहां पूर्व के प्रगट क्षायोपशमिक धर्म क्षायिक रूपमें परिवर्तित हो जाते हैं । अर्थात् क्षायोपशमिक धर्म जो निवृत्त हो जाते हैं यही उन धर्मोका त्याग हुआ, धर्म संन्यास हुआ । प्र०- योगसंन्यास क्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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