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________________ . (ल.)- इह च प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, उक्तं च - 'बहुवयणेण दुवयणं, छट्ठि विभत्तीए भण्णइ चउत्थी । जह हत्था तह पाया, णमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ।' बहुवचनं तु अद्वैतव्यवच्छेदेनार्हद्बहुत्वख्यापनार्थं, विषयबहुत्वेन नमस्कर्तुः फलातिशयज्ञापनार्थं च, इत्येतच्चरमालापके 'नमो जिणाणं जियभयाण' मित्यत्र सप्रतिपक्षं भावार्थमधिकृत्य दर्शयिष्यामः । (पं०) - ‘अद्वैतव्यवच्छेदेनेति, - द्वौ प्रकारावितं दीतं, तस्य भावौ दैतं, तद्विपर्ययेण 'अद्वैतं' = एकप्रकारत्वम् । तदाहुरेके- "एक एव हि भूतात्मा देहे देहे प्रतिष्ठितः (प्र० 'व्यवस्थितः') । एकधा बहुधा चापि (प्र० 'चैव'), दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥" ज्ञानशब्दाद्यद्वैतबहुत्वेऽप्यात्माद्वैतमेवेह व्यवच्छेद्यम्, अर्हद्वहुत्वेन तस्यैव व्यवच्छेद्यत्वोपपत्तेः । 'फलातिशयज्ञापनार्थं चे' ति, 'फलातिशयो' = भावनोत्कर्ष इति । उ०- बहुवचन लेने के तात्पर्य दो है (१) अरिहंत परमात्माके अद्वैत का अर्थात् एकमात्र संख्याका निषेध करके बहुत्व संख्या सूचित करने का है; अर्थात् अर्हत् परमात्मा एक नहीं है, कई है; एवं (२) नमस्कारका विषय बहुत होने से नमस्कार-कर्ताको शुभ भावनाका आधिक्य स्वरूप अधिक फल प्राप्त होता है, यह भी दिखलाना है। यह बात अन्तिम 'नमो जिणाणं जिअभयाणं' इस आलापक याने पदसमूहमें संबन्धी प्रतिपक्षके स्वरूपसहित भावार्थ प्रदर्शित करनेमें कहेंगे। प्र०- द्वैत शब्दका अर्थ क्या है ? उ०- द्वैत शब्दका अर्थ है, - दो प्रकार जिसे प्राप्त है वह द्वीत, इसका तत्त्व हुआ द्वैत, अर्थात् एक नहीं किन्तु अनेक प्रकारवाला स्वरूप। इससे विपरीत है अद्वैत । अद्वैत से एक ही प्रकार होनेका फलित होता है। कहा है, "एक एव हि भूतात्मा, देहे देहे व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चापि, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ ----- एक ही सद्भूत आत्मा याने पारमार्थिक एक ही आत्मद्रव्य अनेकानेक देहोंमे सम्बद्ध हुआ है। वह एक शरीरमें एक रूपसे और अनेक शरीरोमें अनेक रूपोंसे भासित होता है; जैसे एक ही चन्द्र एक तालाबके जलमें एक रूपसे ओर अनेक तालाबोंमें अनेक रूपों से प्रतीत होता है।" लेकिन यहाँ परमात्माके ऐसे अद्वैत का निषेध करना है। इतना ध्यानमें रहे कि अद्वैत अनेक रीतियोंसे माना जाता है, उदाहरणार्थ ज्ञानाद्वैत शब्दाद्वैत इत्यादि । फिर भी प्रस्तुतमें आत्माद्वैत का ही निषेध सूचित है; कारण, अर्हत् परमात्माका बहुत्व निर्दिष्ट होने के कारण आत्माके ही अद्वैतका निषेध प्रस्तुत होता है; न कि ज्ञान या 'शब्द के अद्वैतका निषेध । आत्मा एक नहीं है, अन्यथा प्रत्येकके मोक्ष होनेकी सङ्गति, क्रमशः मोक्ष, मोक्षमार्गकी सत्यता, गुरु-शिष्यभाव, पापि-धर्मिभाव;..... इत्यादि कैसे उत्पन्न हो सके ? .. नमस्कार-क्रिया अनेक परमात्माओंके प्रति करनेसे नमस्कार-कर्ताके हृदयमें शुभभावना बढ़ जाती है। अतः यहाँ नमस्कार क्रियाका विषय अनेक अरहंतोको बनाया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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