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________________ ( ल०-भावनमस्कारवतोऽपि प्रार्थना:-) आह, यद्येवं न सामान्येनैवंपाठो युक्तः भावनमस्कारवतस्तद्भावेन तत्साधनायोगात् । एवमपि पाठे मृषावाद: 'असदभिधानं मृषा' इति वचनात् । असदभिधानं च भावतः सिद्धे तत्प्रार्थनावचः, तद्भावेन तद्भवनायोगादिति । (पं०) - 'तत्साधनायोगादिति' ('तत्') तस्य सिद्धस्य नमस्कारस्य, यत् 'साधनं' = निर्वर्त्तनं प्रार्थनया, तस्य ‘अयोगात्’ = अघटनात् । असदभिधानमिति, असतो = अयुज्यमानस्य, 'अभिधानं' = भणनमिति । 'तद्भावेने' त्यादि ‘तद्भावेन' = भावनमस्कारभावेन, 'तद्भवनायोगात् ' = आशंसनीय भावनमस्कारभवनायोगात् । अनागतस्येष्टार्थस्य लाभेनाविष्करणमाशीः, सा च प्रार्थनेति । शैलेशी अवस्था प्र० - शैलेशी अवस्था किसे कहते हैं । उ० शैलेशका अर्थ है सबसे बडा पर्वत मेरु । इसके भाँति आत्माकी अत्यन्त स्थिर अवस्था बनाना यह शैलेशी अवस्था है। जब तक सूक्ष्म भी योग यानी मन-वचन-कायाकी सूक्ष्म भी प्रवृत्ति विद्यमान हैं, तब तक आत्मद्रव्य अस्थिर होता है याने उसके प्रदेश सतत कम्पनशील होते हैं। शुक्लध्यानके अन्तिम दो प्रकारसे इन योगोंका पूर्णत: निरोध करनेपर आत्मप्रदेश स्थिर हो जाते है। यह है शैलेशी अवस्था । इसे करनेके बाद तुरन्त ही पंच ह्रस्वाक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है, उतने कालमें सर्व कर्मोका क्षय हो कर मोक्ष होता हैं । अतः मोक्ष यह अन्तिम फल है। - भावनमस्कार वालोंको भी प्रार्थना जरुरी : अब यहाँ प्रश्न हो सकता है : : प्र०- अगर प्रार्थनासूचक 'नमोऽस्तु' पाठ कहना है तो ऐसा सूत्रपाठ सामान्यरूपसे अर्थात् सबके लिए नहीं रखना चाहिए: क्यों कि जो भावनमस्कार करनेमें समर्थ है उसे तो भावनमस्कार सिद्ध हो चुका, फिर नया कोई नमस्कार सिद्ध करनेकी उसे आवश्यकता नहीं; तब वह नमस्कारकी प्रार्थना क्यों करे ? सीधा नमस्कार ही करनेके हेतु, 'अस्तु' पद के बिना, 'नमोऽर्हद्भ्यः' इतना ही पाठ पढे न ? फिर भी वह अगर प्रार्थनागर्भित पाठ पढेगा, तब मृषाभाषण होगा। असत् कथन करना यह मृषा भाषण है। प्रार्थनामें तो, अब तक जो इष्ट वस्तु सिद्ध नहीं हुई उसे प्राप्त करनेकी कामना का आविष्कार किया जाता है। भाव नमस्कार जिसे सिद्ध है, उसे उसकी कामना है ही नहीं, फिर भी यदि वह कामना सूचक प्रार्थनावचन कहता है तो क्या वह असत् कथन नहीं है ? प्रश्न रूपमें यह आक्षेप तकका जो कथन किया, अब इसका उत्तर दिया जाता है। उ०- 'नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः - यह पाठ सबके लिए नहीं होना चाहिए अन्यथा भावनमस्कार सिद्ध किये हुए योगी के लिए ऐसा पाठ मृषावाद होगा' - इस प्रकारकी शङ्का और आक्षेप वास्तविक ही नहीं है; क्योंकि आक्षेपोके मूलमें भावनमस्कारकी सिद्धिका रहस्य ही ज्ञात नहीं है। रहस्य यह है कि भावनमस्कारकी सिद्धिका एक ही प्रकार नही वरन् अपकर्ष, उत्कर्ष, अधिक उत्कर्ष, इत्यादि कई प्रकार होते है । ऐसी हालतमें नामनमस्कार, स्थापनानमस्कार और द्रव्यनमस्कार वालों को तो क्या किन्तु भावनमस्कार वालों को भी उत्तरोत्तर उत्कर्ष याने अधिक से अधिक नमस्कार सिद्ध करना बाकी है। अत: उन्हें भी भावनमस्कार संपूर्णतया सिद्ध है ही नहीं ! जब अधिकरूपता का भावनमस्कार अब सिद्ध करना अवशिष्ट है, तब प्रार्थना द्वारा उसकी सिद्धि करना Jain Education International ४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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