________________
धर्मबीज-वपनप्र० -धर्म बीजका बोना क्या है ?
उ० - धर्म बीजका बोना है, धर्म सम्बन्धी प्रशंसा करना याने विशुद्ध रूपसे धर्म के गुणगान करना, धर्ममें शुभ चित्तको स्थापित करना अर्थात् धर्म बहुत अच्छा है ऐसी भावना उत्पन्न करना, और उचित कार्योका सेवन करना । धर्मके दो प्रकार हैं, श्रुतधर्म और चारित्रधर्म । आगमशास्त्रोंके श्रद्धापूर्वक श्रवणस्वाध्यायादिको श्रुतिधर्म कहते हैं और शास्त्रोक्त व्रतनियमादिके पालन स्वरूप सम्यक् प्रवृत्तिको चारित्रधर्म कहते हैं। दोनोंकी विशुद्ध रूपसे प्रशंसादि करना, यही बीज-स्थापन है।
• प्र०- विशुद्ध प्रशंसादिमें विशुद्धि क्या चीज है ?
साधनाकी विशुद्धि के तीन अंग - - 'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रन्थमें कहा है कि प्रशंसादिमें ही क्या किसी भी साधनामें विशुद्धिका संपादन करनेके लिए ये तीन बाते अति आवश्यक है।
(१) वह प्रशंसादि साधना अत्यन्त उपादेय बुद्धिसे, कर्तव्य-बुद्धिसे होनी चाहिए अर्थात् जीवनमें हमें सतत लगना चाहिए कि यह आत्महित के लिए अत्यन्त करने योग्य कृत्य है; (२) जीव की साथ अनादिसे लगी हुई आहारादि संज्ञाएँ है:-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, विषयसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा०, मान०, माया०, लोभ०, लोक०, ओघसंज्ञा इत्यादि, इनमेंसे प्रत्येक संज्ञाकी रुकावट यानी उसका उपशमन करनेके साथ साधना होनी आवश्यक है। (३) साधना पौद्गलिक याने दुन्यवी किसी लाभकी अपेक्षासे बिलकुल विनिर्मुक्त होनी चाहिए।
धर्मवृक्षके बीज-अङ्कुर..... पुष्प फलका स्वरूप
इन तीनोंसे युक्त विशुद्ध धर्मप्रशंसादि करना यही धर्मके लिए बीज का वपन है। बादमें धर्मकी अभिलाषा करना वगैरह अङ्करादि अवस्था है। और अंतमें जाकर मोक्ष प्राप्त करना, यह धर्मका फल है।
प्र०- धर्म के अङ्करादि स्वरुपमें क्या क्या लिया जाता है?
.30- साध्यधर्मकी चिन्ता अर्थात् स्वयं करनेकी अभिलाषा यह है 'अङ्कर' । धर्म का स्वरूप जानने के लिए सम्यग् उपदेशका श्रवण करना यह सम्यक् 'काण्ड-नाल' (मुख्य और अवान्तर डाली) अवस्था है। आगे इस धर्मका अनुष्ठान यानी सम्यग् विशुद्ध आचरण करना, उसे 'पत्ते' की अवस्था कहते हैं। उस आचरणसे पुण्यद्वारा देव-मनुष्यकी संपत्तियाँ अर्थात् स्वर्गीय व मानवीय सुख मिलता है यह 'पुष्प' अवस्था है। अन्तमें मोक्ष पाना, यह 'फल' अवस्था है। . प्र०- स्वर्गादि सुख-संपत्तिको फल क्यों नहीं कहा?
____उ०- सुबुद्ध लोग सबसे बडे फल याने मुख्य फलको ही फल कहते हैं, नहीं कि आनुषङ्गिक अर्थात् बीचके गौण अवान्तर फलको । उदाहरणार्थ कृषिमें धान्यकी प्राप्तिको ही फल कहते हैं, नहीं कि घास, पुष्प वगैरह की प्राप्ति को । सबसे बडा फल ही फल है, इसलिए परमार्थदर्शी बुद्धिवाले लोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्गानुष्ठान जो कि अंतमें जाकर शैलेशी अवस्थारुप है उसको अद्वितीयमोक्षमार्गरूपसे मोक्षस्वरूप अन्तिम फलको पैदा करनेवाला मानते है। क्यों कि शैलशी को छोडकर दूसरी अवस्थाओंसे तुरन्त ही दूसरे फल होते हैं, मोक्ष नहीं। जब कि शैलेशीसे तुरन्त मोक्षफल होता है। इस मोक्षको ही अन्तिम फल माना गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org