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(ल०) अपि च, लाघवापादनेन शिष्टप्रवृत्तिनिरोधतस्तद्विघात एव । अपवादोऽपि सूत्राबाधया गुरुलाघवालोचनपरोऽधिकदोषनिवृत्त्या शुभः,शुभानुबन्धी, महासत्त्वासेवित उत्सर्गभेद एव; न तु सूत्रबाधया गुरुलाघवचिन्ताऽभावेनाहितमहितानुबन्ध्यसमंजसं परमगुरुलाघवकारि क्षुद्रसत्त्वविजृम्भितामिति ।
(पं०) 'अपि च' इति दूषणान्तरसमुच्चये । यदृच्छप्रवृत्त्या सम्यक्चैत्यवन्दनविधेः लाघवापादनेन लघूकरणेन, शिष्टप्रवृत्तिनिरोधतः पूज्यपूजारूपशिष्टाचारपरिहारात्, तद्विघात एव उपायान्तरादपि संभवन्त्यास्तथेष्टफलसिद्धेविष्कम्भ एवं । यथोक्तम्- 'प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः' इति । आह - ननु गतानुगतिकरूपश्चैत्यवन्दनविधिरपवादस्तर्हि स्यादित्याशङ्क्याह 'अपवादोऽपी'त्यादि । उत्सर्गभेद एवेति उक्तविशेषणोऽपवाद उत्सर्गस्थानापन्नत्वेनोत्सर्गफलहेतुरित्युत्सर्गविशेष एवेति ।
जो शुभ अध्यवसाय और इससे जनित विशिष्ट कर्मक्षय, एवं कल्याणस्वरूप इष्ट फल, उनकी सिद्धिकी भी अवश्य रुकावट ही हो जाती है। (कारण यह है कि पूज्यपूजाका लोप करनेसे कल्याणकारी वास्तविक शुभ अध्यवसायकी भूमिका ही नष्ट हो जाती है। जैसे पूर्व पुरुषोंने कहा है कि पूज्यकी पूजाका लोप कल्याणको रोक देता है।)
प्र०- गतानुगतिक ढंगसे की जाती चैत्यवन्दनविधि उत्सर्गके नियमानुसार न हो, फिर भी अपवादस्वरूप क्यों नहीं गिनी जा सकती?
उ०- अपवाद भी, (१) सूत्र से अबाधित होना आवश्यक है नहीं कि सूत्र से बाधित; एवं, (२) लाभ-हानिकी अधिकता-न्यूनता के परामर्शपूर्वक होना चाहिए, नहीं कि वैसी चिन्तासे शून्य;
(३) ऐसा भी आदरणीय होनेके लिए लाभको अपेक्षा अधिक मात्राके दोषसे रहित होकर हितकारी होना जरुरी है, नहीं कि अहितकारी।
(४) शुभ परिणामकी, नहीं कि अहितकी, परंपराका सर्जक बनना आवश्यक है; एवं
(५) महान आत्माओंसे आचरित होना चाहिए; नहीं कि अघटित हो और परमात्माकी लघुता करनेवाला हो, एवं क्षुद्र जीवों से आसेवित हो। इतने विशेषणोंसे युक्त अपवाद एक प्रकारका उत्सर्ग ही है, अर्थात् औत्सर्गिक नियमका ही स्थान पाता है; क्योंकि उत्सर्ग पालनका जो फल होता है उसीमें वह अनुकूल होता है।
__(शास्त्रके नियमोंमे जहां अपवाद खोजनेकी प्रवृत्ति होती है, वहाँ पहले उपर कही हुई सच्चे अपवादकी खासियतें देखनी चाहिए। सूत्रको इष्ट ऐसी मर्यादा (नियमन) का ही घातक हो, और दोषकी प्रचुरताका सर्जक हो, तो वह अपवाद मार्ग कैसा? सूत्रकथित राजमार्गके पालनकी असामर्थ्य हो, और आपवादिक मार्ग लेनेमें दोष लगता हो लेकिन बिलकुल साधना ही न करे तो महान लाभसे वंचित रहना पडता हो; तब आपवादिक मार्गसे साधना करने में अनिवार्य दोषकी अपेक्षा लाभ अधिक प्राप्त होता है। ऐसी परिस्थितिमें अपवाद भी आदरणीय है। अनधिकारीको चैत्यवन्दन देनेके अपवाद मार्गमें तो उलटा है, इसमें दोषकी प्रचुरता निष्पन्न होती है। इसलिए वह सच्चा अपवाद ही नहीं । अनधिकारीमें इससे शुभपरिणामोंकी धारा भी नहीं चलती बल्कि भारी अशुभ परिणामोंका सर्जन होता है। और महान पुरुषोंने ऐसे अपवादको अपनाया भी नहीं । वह तो क्षुद्रजीवोंका चेष्टित है। फिर वह कैसे आदरणीय बन सकें ?)
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