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___'जय वीयराय०' (प्रणिधानसूत्रम्) (ल०-योगमुद्रादित्रयस्वरू पम्-) पुनः स ते वा संवेगभावितमतयो विधिनोपविश्य पूर्ववत् प्रणिपातदण्डकादि पठित्वा स्तोत्रपाठपूर्वकं ततः सकलयोगाक्षेपाय प्रणिधानं करोति कुर्वन्ति वा मुक्ता-शुक्त्या ; उक्तंच,'पंचंगो पणिवाओ, थयपाढो होइ जोगमुद्दाए । वंदण जिणमुद्दाए, पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ॥१॥ दो जाणू दोण्णि करा, पंचमंगं होइ उत्तमंगं तु । संमं संपणिवाओ, णेओ पंचंगपणिवाओ ॥२॥ अण्णोण्णंतरियंगुलि - कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरिकोप्पर-संठिएहिं तहजोगमुद्दत्ति ॥३॥ चत्तारि अंगुलाइं, पुरओ ऊणाहिं जत्थ पच्छिमओ । पायाणं उस्सग्गो, एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥४॥ मुत्तासुत्ती मुद्दा, समा जहिं दोवि गब्भिया हत्था । ते पुण निडालदेसे, लग्गा अन्ने अलग्गत्ति ॥५॥
'जय वीयराय०' (प्रणिधानसूत्र) ३ मुद्रा : योगमुद्रा-जिनमुद्रा-मुक्ताशुक्तिमुद्रा :
पुनः संवेग से भावित मति वाले एक या अनेक साधक कायोत्सर्ग एवं स्तुति के अनन्तर विधिपूर्वक बैठ कर पूर्व कहे अनुसार प्रणिपातदण्डक (नमुत्थुणं०) सूत्र पढ़ते हैं। बाद में स्तोत्र पढ़ कर समस्त समाधि का आकर्षण करने के लिए प्रणिधान करते हैं; - प्रभु के आगे अनेक शुभ आशंसाओं को प्रगट करनी है तब इनमें एकाग्र मनः स्थापन करते हैं, और इनका सूत्र - 'जयवीयराय' इत्यादि पढते हैं। इसीलिए यह प्रणिधानसूत्र कहा जाता है। यह सूत्र पढना 'मुक्ताशक्ति-मुद्रा' से किया जाता है । मुद्रा तीन प्रकार की होती हैं। इसके संबन्ध में चैत्यवन्दन-महाभाष्य में कहा गया है कि -
(१) पंचांग-प्रणिपात एवं स्तवपाठ योगमुद्रा' रख कर किये जाते हैं। 'वंदणवत्तियाए०' इत्यादि पढ कर कायोत्सर्ग 'जिनमुद्रा' से किया जाता है। और प्रणिधान सूत्र 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' से पढा जाता है
(पंचाङ्गप्रणिपात एवं मुद्राओं का यह स्वरूप है :-)
(२) दो जानू, दो हाथ, और एक मस्तक, - इन पांचो अङ्गों को भूमि पर लगा कर सम्यक् रीति से किया जाता नमस्कार यह पंचांग-प्रणिपात है।
(३) दोनों हाथों की अङ्गुलियों को परस्पर अन्तर में रख कर दोनों हाथों को कमल-कोशाकार बनाया जाए और कोप्पर (कोहनी) को पेट के उपर स्थापित किया जाए (और कोशाकार हाथों को मुख के सामने रखा जाए) यह योगमुद्रा है।
(४) खडे रहकर पैरों को, आगे चार अंगुल के अन्तर से और पिछे चार से कुछ न्यून अन्तर से, जहां रखा जाता है और कायोत्सर्ग किया जाता है, यह जिनमुद्रा होती है।
(५) जहां दोनों हाथों को मौक्तिक की छीप की तरह अंगुलि-अग्रों को सामने सामने लाकर समान रूप से योजित किया जाता है, और वे हाथ ललाटप्रदेश पर लगाये जाते है, यह 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' है; अन्य कहते है ललाट से स्पर्श न कराते हुए उसके आगे रखे जाते हैं।
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