SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जागृत होता है यह सिद्ध है। प्र० - ठीक है, लेकिन कायोत्सर्गकर्ता को कायोत्सर्ग से विघ्नोपशम-पुण्योपार्जनादि स्वरूप शुभ सिद्ध होता है इसका ज्ञापक कौन है? उ० - ज्ञापक यही कायोत्सर्गप्रवर्तक सूत्रवचन है। वह आप्त पुरुष के द्वारा उपदिष्ट होने से व्यभिचारी अर्थात् निष्फल वचन नहीं हो सकता। इसलिए चाहे वैयावच्चकर्ता से अज्ञात रहे तब भी कायोत्सर्गवश शुभ प्राप्ति होना वचन से ही सिद्ध है। इतना ही नहीं, प्रमाणान्तर से भी वह असिद्ध नहीं है; जैसे कि जहां अभिचार कर्म अर्थात् स्तोभन, स्तम्भन, मोहन आदि कर्म अथवा शान्ति-पौष्टिकादि शुभफलदायी कर्म किया जाता है वहां प्रत्यक्ष या अनुमान से अवगत होता है कि उस स्तोभनादि क्रिया के उद्देश्य व्यक्ति को उस क्रिया का ज्ञान न रहने पर भी स्तोभनादि क्रिया के कर्ता को इष्ट फल स्तोभन-स्तम्भनादि प्राप्त होता है क्यों कि वह क्रिया तद्विषयक आप्त पुरुष के द्वारा उपदिष्ट है । इस दृष्टान्त पर अनुमान प्रयोग इस प्रकार हो सकता है, - जो जो कर्म अन्य को उद्देश्य रखकर किया जाता हुआ आप्त पुरुष के उपदेश पर निर्भर है वह वह कर्म अपने उद्देश्यभूत व्यक्ति से अज्ञात रहने पर भी अपने कर्ता को इष्टफलकारी होता है, उदाहरणार्थ स्तोभन-स्तम्भन आदि कर्म । वैयावृत्त्यकारी आदि को उद्देश्य रख कर किया जाता कायोत्सर्गकर्म भी ऐसा ही है अर्थात् आप्तोपदिष्ट है, अतः कायोत्सर्ग के विषयीभूत व्यक्ति से अज्ञात रहने पर भी कर्ता को इष्टफल-संपादक होता है। इस प्रकार वेयावच्चगराणं० सूत्र ‘उचितेषु उपयोगफलम्' - उचितों में प्रणिधानजनक है अर्थात् सूत्र के द्वारा जिनप्रवचनार्थ प्रवृत्तिशीलता, शान्तिकरता, सम्यग्दृष्टित्व और समाधिकर्तृत्व गुणों से योग्य बने जीवों के स्मरण का लाभ मिलता है और वह करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि हमेशा सर्वत्र औचित्य से प्रवृति करनी आवश्यक है। प्रस्तुत में योग्य आत्माओं का स्मरण एवं उनके भाववृद्धि हेतु कायोत्सर्ग करना यह उचित प्रवृत्ति है, औचित्य है । यह सार्वदिक ओर सार्वत्रिक औचित्यपालन समस्त योगों का बीज है। अध्यात्म-भावनाध्यान-समता-वृत्तिसंक्षय, - ये पांचो योग या ज्ञानाचारादि पंचाचार रूप योग, अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक रत्नत्रयी योग, या यमनियमादि एवं अद्वेष-जिज्ञासादि युक्त मित्रादि योगदृष्टि स्वरूप योग, उन सब योगवृक्ष का बीज है औचित्यपालन। ___ यहां 'वेयावच्चगराणं०' सूत्र पढ़ कर 'पुक्खरवर०' सूत्र की तरह बाद में 'वंदणवत्तियाए०' सूत्र नहीं पढा जाता है, क्यों कि वे वैयावृत्त्यादिकर सम्यग्दृष्टि जीव अविरति वाले होते हैं, और अविरति वालों को विरतिधर के द्वारा वन्दन पूजन कराना उचित नहीं । अतः वंदणवत्तियाए०' सूत्र छोड़कर 'अन्नत्थ ऊससिण्णं०' सूत्र पढा जाता है और तदनन्तर इस कायोत्सर्ग किया जाता है। प्र० - 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि अगर न पढ़ें तब स्वात्मा को शुभसिद्धि एवं तदधीन वैयावच्चकारी आदि को भाववृद्धि का उपकार कैसे होगा? उ० - सामान्यप्रवृत्ति द्वारा इसी प्रकार याने वंदणवत्तियाए इत्यादि न पढ़ते हुए भी उपकार होता है यह देखने में आता है। उदाहरणार्थ, सुना जाता है कि बिना वंदणवत्तियाए० बोले, शासनदेवतार्थ की गई कायोत्सर्ग की सामान्य प्रवृत्ति द्वारा उसे भाववृद्धि का उपकार होता था। तब यहां भी इसी रीति से उपकार होगा। इसमें शास्त्र प्रमाण है। जब बिना 'वंदणवत्तियाए०' पढे 'वेयावञ्चगराणं०' के बाद सीधा अन्नत्थ पढ़ने का शास्त्र वचन है, तब यों ही उपकार होना शास्त्रप्रमाणित हो जाता है। 'सिद्धाणं बुद्धाणं' इत्यादि सूत्र की व्याख्या हुई। ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy