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________________ (ल० - अर्थवादेऽप्युपपत्तिः) अर्थवादपक्षेऽपि न सर्वा स्तुतिः समानफलेत्यतो विशिष्टफलहेतुत्वेनात्रैव यत्नः कार्यः; तुल्ययत्नादेव विषयभेदेन फलभेदोपपत्तेः; बब्बूल - कल्पपादपादौ प्रतीतमेतत् । भगवन्नमस्कारश्च परमात्मविषयतयोपमातीतो वर्त्तते; यथोक्तम् , - 'कल्पद्रुमः परो मन्त्रः, पुण्यं चिन्तामणिश्च यः । गीयते स नमस्कारस्तथैवाहुरपण्डिताः ॥१॥ 'कल्पद्रुमो महाभागः, कल्पनागोचरं फलम् । ददाति न च मन्त्रोऽपि, सर्वदुःखविषापहः ॥ २ ॥ 'न पुण्यमपवर्गाय, न च चिन्तामणिर्यतः । तत्कथं ते नमस्कार एभिस्तुल्योऽभिधीयते ? ॥३॥ ___इत्यादि । एतास्तिस्रः स्तुतयो नियमेनोच्यन्ते । केचित्तु अन्या अपि पठन्ति, न च तत्र नियम इति न तद्व्याख्यानक्रिया। ____ (पं०-) 'कल्पद्रुमे 'त्यादिश्लोकः, 'कल्पद्रुमः' कल्पवृक्षः, 'परो मन्त्रः' हरिणैगमेषादिः, 'पुण्यं' तीर्थकरनामकादि, 'चिन्तामणिः' मणिविशेषः, 'यो गीयते' = यः श्रूयते जगतीष्टफलदायितया, 'तथैव'=गीयमानकल्पद्रुमादिप्रकार एव 'स', भगवंस्तव 'नमस्कार', 'आहुः', अपण्डिताः अकुशलाः, "एतदिति शेषः । जाता है कि यह क्या स्तुति - अर्थवाद है ? इसका उदाहरण यह, - एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामान् अवाप्नोति' - अर्थात् एक संपूर्ण आहुति से सभी वांछित प्राप्त होते हैं। ध्यान में रहे यह कोई विधिवाक्य नहीं कि मात्र एक पूर्ण आहुति ही की जाए और दूसरा कुछ न करे फिर भी सर्व इच्छित सिद्ध होंगे; किन्तु पूर्ण आहुति प्रभावशाली है ऐसी प्रशंसा का द्योतक है यह विधिवाक्य । • (२) विधिवाद' का दृष्टान्त यह कि 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः, - अर्थात् स्वर्ग की कामना वाला पुरुष अग्निहोत्र यज्ञ करे' । इससे स्वर्गेच्छु के लिए अग्निहोत्र का विधान किया गया। प्रस्तुत में प्र है कि 'इक्को वि नमुक्कारो' यह अर्थवाद है या विधिवाद? कहिए इससे क्या मतलब है? मतलब यह है कि, अगर पहला पक्ष स्वीकृत है तब तो देखिए अर्थवाद में यथोक्त फल नहीं होता है; प्रशंसात्मक अर्थवाद वस्तुस्थिति का प्रतिपादक नहीं है इसलिए गाथा से यह विवक्षित होता नहीं कि एक ही नमस्कार से संसार पारगमन स्वरूप फल हो जाएगा । शायद आप कहेंगे ‘मत हो, दूसरा कोई फल होगा' तब तो यह आया कि तादृश फलजनक किसी दूसरी स्तुति करने की अपेक्षा इस स्तुति करने में कोई विशेषता नहीं हुई, फिर इसी में प्रयत्न क्यों करे? प्रयत्न उसी अन्य स्तुति में ही किया जाए; जैसे कि यक्ष की स्तुति में । यक्षस्तुति भी निष्फल ही होती हैं ऐसा नहीं है। अब अगर दूसरा पक्ष विधिवाद स्वीकृत है तब तो सम्यक्त्व एवं देशविरति - सर्वविरति आदि चारित्र का पालन करना व्यर्थ है, क्यों कि एक महावीर-नमस्कार से ही मोक्ष सिद्ध हो जाएगा ! सम्यक्त्वादि के द्वारा भी मोक्ष के सिवा दूसरा कोई फल तो इष्ट नहीं है, क्यों कि मोक्षसाधक रूप से ही वे अभिलषित है। तत्त्वार्थ - अध्याय प्रथम का आद्य सूत्र यह है कि 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र (तीनों मिल कर) मोक्ष के उपाय हैं। लेकिन इनका प्रयत्न करना व्यर्थ है, मोक्ष तो एक ही वीरनमस्कार से सिद्ध हो जाएगा। स्तुतिवाक्य विधिवाद होने का समर्थन : ३५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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